Sunday, August 31, 2008

रंग लाया संघर्ष

रंग लाया अमरनाथ संघर्ष समिति का संघर्ष
विवाद खत्म होने पर लोगों को हुआ हर्ष
केंद्र और कांग्रेस ने भी ली राहत की सांस
पुलिस और पीडीपी को नहीं आई खुशी रास
पीडीपी ने अमरनाथ भूमि समझौता ठुकराया
पुलिस ने जीत की खुशी मना रहे लोगों पर कहर ढाया
सियासत की यह कैसी माया
लहूलुहान हुई भक्तों की काया.

Saturday, August 30, 2008

तबाही का मंजर

पहले कोसी ने ढाया कहर
अब महामारी फैलने का डर
जिंदगी और मौत के बीच छिड़ी है जंग
दाने-दाने को मोहताज हैं लोग
हर तरफ है तबाही का मंजर
इंसानियत भी हुई तार-तार
लूटपाट और कालाबाजारी ने तोड़ी लोगों की कमर
पहले से ही टूट चुके लोगों पर लुटेरे ढा रहे हैं कहर
जंग सिर्फ मौत के सैलाब से नहीं, जिंदा नरपिशाचों से भी है
और बाढ़ के बाद महामारी से निपटने की चुनौती भी तो है.

Friday, August 29, 2008

तू न होती तो..

ब्लूलाइन : अगर तू न होती तो राहगीरों पर कौन कहर ढाती
तू ही तो दिल्ली की सड़कों पर राहगीरों पर है लगाम लगाती
कब तक तू यूं ही गुल रहेगी खिलाती
और वे पीटती रहेंगी अपनी छाती
क्या तूने सड़कों से राहगीरों को उठाने की है ठानी
ये मत भूल कभी तुझे भी पड़ेगी इसकी कीमत चुकानी.

Thursday, August 28, 2008

क्योंकि मैं लड़की हूं

किसी ने कोख में खत्म कर दिया
किसी ने पंगूड़ा में छोड़ दिया
किसी ने मेरे जन्म पर खाना ही छोड़ दिया
सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं लड़की हूं
इसमें उनका कोई कसूर नहीं
कसूरवार तो मैं हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं
भाई शहर में पढ़ेगा, मैं घर से निकलूंगी तो कोई देख लेगा
मैं उनका नाम थोड़े ही रोशन करूंगी
रूखा-सूखा खाकर भी भाई से मोटी हूं
दिन-दूने, रात चौगुने बढ़ती हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं.

Wednesday, August 27, 2008

हर किसी ने सताया

उनको तो हर किसी ने सताया
पहले सर्दी ने ठिठुराया

फिर गर्मी ने झुलसाया
सूखे ने खून के आंसू रुलाया

अब बाढ़ ने कहर ढाया
सूदखोरों ने ब्याज बढ़ाया

महंगाई ने निवाला छुड़ाया
ऊपर वाले ये कैसी तेरी माया.

Tuesday, August 26, 2008

तमाशबीन बने सफेदपोश

प्राकृतिक आपदाएं ला रहीं विपदाएं।
नर और नारी पर ये आए दिन कहर ढाएं।।

पंजाब में सतलुज, बिहार में कोसी का कहर।
मुश्किल में है आम आदमी का सफर।।

तमाशबीन बने बैठे हैं सफेदपोश।
और आम आदमी के उड़े हुए हैं होश।।

Monday, August 25, 2008

भोले करो मेहरबानी

घाटी में फिर प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी
क्या यूं ही मरते रहेंगे नर और नारी

केंद्र सरकार करती न इतनी नादानी
तो फिर आज खड़ी न होती परेशानी

भोले अब तुम ही करो मेहरबानी

नहीं तो सरकार करती रहेगी नादानी.

रंग लाई शुद्धता

ऐसे ही नहीं बालों पर सफेदी आई है।
ये तो तेल की शुद्धता रंग लाई है।।

काश ! हर चीज ऐसे ही शुद्ध मिलती रहे।
और जवानी में बुढ़ापा दिखता रहे।।

अगर हर चीज यूं ही शुद्ध नहीं होगी।
तो मिलावटी बाबू की मौज कैसे होगी।।

Thursday, August 21, 2008

इससे तो हर कोई परेशान है

क्या हड़ताल भी किसी समस्या का समाधान है

इससे तो हर कोई परेशान है

फिर क्यों आए दिन हड़ताल थाम रही रफ्तार है.

Tuesday, August 19, 2008

बादल ले रहे अंगड़ाई

पंजाब में बाढ़ से चारों ओर हाहाकार मचा है भाई।

सीएम बादल 'सिंह इज किंग' देख ले रहे अंगड़ाई।।

सैकड़ों गांव हैं पानी-पानी, दुखी हैं नर-नारी।

क्योंकि सतलुज के पानी का है कहर जारी।।

आज तुम कर लो अपनी मनमानी जनाब।

चुनाव में अवाम को देना पड़ेगा जवाब।।

Saturday, August 16, 2008

पड़ोसी की सोच

हम इसलिए नहीं दुखी हैं कि हमें दुख है।
हमें दुख तो इस बात का है कि पड़ोसी खुश है।।

पड़ोसी मुल्क की भी है शायद यहीं है सोच।
नहीं तो आए दिन क्यों तोड़ता संघर्ष विराम।।

Friday, August 15, 2008

...61 साल की हुई आजादी

जम्मू-कश्मीर में सेंकी जा रही सियासी रोटियां।
किसानों को मुआवजे के बदले दी जा रहीं गोलियां।।

महंगी होती जा रही दाल और रोटियां।
संसद में उछाली जा रही नोटों की गड्डियां।।

शाम ढलते ही घर से निकलने से डरती हैं बेटियां।
यहीं सब देख 61 साल की हो गई आजादी।।

पीएम का पैगाम, सोनिया का नाम-अपना काम।
फिर आया आम आदमी के रिझाने का ख्याल।।

Thursday, August 14, 2008

मचा रहे कोहराम

हिंदू संगठन करके चक्का जाम।
जमीन के लिए मचा रहे कोहराम।।

सड़कों पर दिया जा रहा धरना।
रोगी मरें उन्हें क्या करना।।

तमाशबीन बना हर कोई।
खोया तो किसी और ने है भाई।।

Tuesday, August 12, 2008

मचाते रहना धमाल

अभिनव तूने कर दिया कमाल।
यूं ही मचाते रहना धमाल।।

जैसा नाम वैसा काम है तेरा।

लगाते रहना ऐसे ही सटीक निशाना।
करते रहना हर किसी का चौड़ा सीना।।

ग्रेट यार-ग्रेट यार।

Monday, August 11, 2008

काश! मेरा बेटा भी अभिनव जैसा होता

उसने कहां-कहां नहीं मन्नत मांगी॥ताकि उसे भी पुत्र रत्‍‌न की प्राप्ति हो जाए। शायद इसलिए कि जब मैं बुजुर्ग हो जाऊंगा तो वह मेरे बुढ़ापे की लाठी का सहारा बनेगा। मेरा नाम रोशन करेगा। इसी तरह उसकी ना जाने कितनी ख्वाहिशें थी। पर सभी को अभिनव बिंद्रा जैसे लाल नहीं मिलते, जो इतिहास रचे और मां-बाप के साथ देश का भी नाम रोशन करें। उसे काफी मन्नतों के बाद एक पुत्र रत्‍‌न की प्राप्ति हो गई। उसने अपने जिगर के टुकड़े के लिए क्या कुछ नहीं किया। उसकी हर ख्वाहिशें पूरी की। करता भी क्यों ना, क्योंकि वह जो उसकी आंखों का तारा था, फिर इकलौती संतान तो और भी प्यारी होती है।

उसने अपने लाल को अच्छी से अच्छी तालीम दी। चूंकि वह खुद पेशे से डाक्टर था, इसलिए उसकी ख्वाहिश थी कि मेरा बेटा भी पढ़-लिख कर नेक इंसान बने। खैर, वह बेटे को खुद की तरह नामी डाक्टर तो नहीं बना सका, पर वकील जरूर बना दिया। ईश्वर की कृपा कहें या फिर बेटे की मेहनत व लगन उसकी वकालत खूब चल पड़ी। अब उसकी भी दूर-दूर तक चर्चा होने लगी कि फलां व्यक्ति तो डाक्टर था ही, उसका बेटा भी बड़ा अच्छा वकील है।

पर यह सब ज्यादा दिन तक नहींचला। कल तक उसकी वकालत खूब चलती थी तो कमाई भी अच्छी हो जाती थी, पर अब वो बात कहां। अब तो महीनों हो जाते हैं, पर उसके पास कोई केस ही नहींआता। अब वह करे भी तो क्या। खर्च दिन-ब-दिन बढ़ रहा है और आमदनी घट रही है। चूंकि अब वह शादीशुदा है और उसके भी बच्चे हैं, इसलिए बाप से खर्च के लिए पैसे मांगना भी नहीं चाहता। फिर कुछ लोगों की गलत संगत में पड़कर वह भी बुरा आदमी बन गया। अब वह दिन में तो कोर्ट में दिखावे के लिए बैठता कि फलां वकील साहब हैं, और शाम ढलते ही वह चोरी, डकैती और लूटपाट करने लगा। धीरे-धीरे उसका गिरोह काफी बड़ा हो गया। अब वह एक-एक रात में 16-16 तक डकैती डालने लगा।

कहते हैं कि ऊंट की चोरी कब तक निहुरे-निहुरे, कभी न कभी तो पकड़ा ही जाएगा। उसके साथ भी यहीं हुआ। एक दिन जब वह अपने गिरोह के साथ चोरी के पैसे बांट रहा था तो किसी मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने आकर उसके गिरोह के एक सदस्य को दबोच लिया। पुलिस की पिटाई से उसका साथी टूट गया और उसने सच उगल दिया। फिर क्या था। सुबह हर अखबार की सुर्खियों में था फलां नामी डाक्टर का बेटा नामी चोर। अब कल तक लोग जिस डाक्टर की तारीफ करते नहींथकते थे, आज उसकी बुराई करते नहीं थकते हैं।

कहते हैं, अरे जब बेटा नामी चोर है, तो बाप भी जरूर उससे मिला होगा। ऐसे में उस बाप पर क्या गुजरी होगी। तब से उसने कसम खा ली, कि कभी वह बेटे से बात नहीं करेगा। आज काफी समय हो गए हैं, पर वह अब भी बेटे से बात नहीं करता है। हालांकि उसकी पत्‍‌नी व बेटे-बहुओं को फिर भी हर संभव मदद करता है। अब ये महाशय गांव में रहकर खेती कर रहे हैं। और इनके चार बेटों, बहुओं, उनके बच्चों और खुद इन महाशय व इनकी पत्‍‌नी का खर्च भी खुद डाक्टर साहब अब भी उठा रहे हैं।

अब ये महाशय भले ही चोरी नहीं करते हैं, पर इनकी आदत में जरा सा भी बदलाव नहीं आया है। अब वह खुद गांजा पीते हैं और आस-पास के लोगों को भी खासकर युवा व बेरोजगार को भी आदी बना रहेहैं। भले ही वह हिस्टी शीटियर है, पुलिस की भी उस पर चौबीस घंटे नजर रहती है फिर भी वह हर समय नशे में धुत रहता है।

बुजुर्ग बाप कल तक जो उसकी खुशी के लिए मन्नतें मांगते नहीं थकता था, अब वह उसकी मौत की मन्नत मांगने के लिए मजबूर है। मां-बाप ने बुढ़ापे में यहीं सब देखने के लिए क्या इन महाशय को बड़ा किया था। आज शायद ये मां-बाप भी यहींसोच रहे होंगे कि काश! मेरा बेटा भी अभिनव बिंद्रा जैसा होता।

Sunday, August 10, 2008

अपने भी इतने स्वार्थी

उसने अपने भाइयों को भगवान मान लिया। पर भाइयों ने उसके साथ ऐसा सलूक किया, जो गैरों से भी अपेक्षित न था। क्या अपना खून भी इतना स्वार्थी हो जाता है? क्या पैसा ही सब कुछ है और भाई कुछ नहीं?

उसने अभी होश भी नहीं संभाला था कि सिर से मां-बाप का साया उठ गया। भाइयों में सबसे छोटा अब करे भी तो क्या। खैर, एक भाई ने तरस खाकर उसे अपने पास रख लिया। जिस उम्र में बच्चे हाथों में बैग लेकर स्कूल जाते हैं, उस उम्र में उसे थमा दिया गया हल और कुदाल। 'मरता क्या न करता' की तर्ज पर उसने भी भाई ने जहां बिठाया, उस जगह पर बैठा। जैसे रखा, उस तरह से रहा। वह कभी भी टस से मस न हुआ। पर जब उसकी उम्र शादी लायक होने लगी तो वह भाई साहब के लिए बोझ बनने लगा।

अब रोजाना उसे जरा-जरा सी बात पर जलील करना आम बात हो गई। फिर भी उसने कभी अपने भाई के सामने मुंह नहींखोला। एक दिन भाई ने कहा, अब बहुत हो गया मैं काफी समय से तुम्हें पाल-पोश रहा हूं। अब मेरे बस की बात नहींहै। कोई दूसरा रास्ता देखो। उसने भाई को घर से निकाल दिया। यह सब भाई साहब ने इसलिए किया, ताकि कहींवह हिस्सा न मांग ले। और ये महाशय उसकी इतने साल की सारी कमाई भी हड़प गए।

खैर, दूसरे भाई ने हमदर्दी दिखाकर उसे अपने पास रख लिया। पर उसने भी वहींसब सलूक किया जो पहले भाई ने किया था। कुछ खास किया तो अपनी साली के साथ उसकी शादी करा दी। फिर भी भाई साहब के लिए ये दोनों घर में नौकर-नौकरानी से ज्यादा कुछ नहींथे। भाई साहब का परिवार तो शहर में रहता, और ये पति-पत्‍‌नी गांव में दिन-रात कड़ी मेहनत करते और अपनी गाढ़ी कमाई भाई साहब को पहुंचाते रहते।

खुद पति-पत्‍‌नी चीथड़े लपेटे रहते और भाई साहब का परिवार ऐशो-आराम रहता। इनका सिर्फ यहींकसूर था कि ये लोग भाई साहब को ही मांई-बाप समझ बैठे थे। भाई साहब ने इनकी गाढ़ी कमाई से शहर में मकान भी बनवा लिया, और ये गांव में खुद के नहींबल्कि भाई साहब के मकान में रहते।

भाई साहब इनसे कहते कि चिंता मत करों मैं तुम्हारे बच्चों को शहर में अपने पास रखूंगा, उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाऊंगा। ये पति-पत्‍‌नी उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते। यहां तक कि खुद ये लोग चावल की किनकी (टूटे चावल) खाते और भाई साहब को साबुत (समूने) चावल भेजते। इसी तरह दूध-घी व अन्य खाद्य सामग्री भी भेजते। यानि पति-पत्‍‌नी ने इनकी खातिरदारी में कोई भी कसर नहींछोड़ी।
धीर-धीरे समय बीतता गया।

अब इनके बच्चे भी पढ़ने लायक हो गए। हालांकि इनकी बड़ी लड़की को भाई साहब ने अपने पास रख लिया। पर उसके साथ भी यह वहींसलूक करते थे जो भाई व पत्‍‌नी के साथ। यानी पढ़ने-लिखने की उम्र में उससे घर का सारा काम कराते।

इन्होंने अपने बच्चों को तो अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया और उस मासूम को पढ़ने ही नहींदेते। हालांकि इन्होंने बाद में उसका भी एक प्राइमरी स्कूल में नाम लिखवा दिया, पर उसे स्कूल इसलिए कम जाने देते, क्योंकि अगर वह स्कूल जाएगी तो घर का काम कौन करेगा। साथ ही, इस मासूम के दो भाई भी पढ़ने लायक हो गए, जब शहर में उनके पढ़ाने की बात आई तो भाई साहब ने हाथ खड़े कर दिए। अरे मैं तो अपने परिवार का खर्चा नहींचला सकता हूं, फिर मैं तुम्हारे बच्चों को अपने पास कैसे रखूं। यानी इन्होंने उसके बच्चों को रखने से साफ मना कर दिया।

तब इन्हें ठोकर लगी, कि अरे हम दोनों (पति-पत्‍‌नी) इनके (भाई साहब) के लिए क्या नहींकिया। और इन्होंने ये सिला दिया। फिर भी इन्होंने हिम्मत नहींहारी। इन्होंने अपने बच्चों का दाखिला शहर के सबसे अच्छे स्कूल में कराया। ये रोज सुबह बच्चों को साइकिल से गांव से करीब बीस किलोमीटर दूर स्थित स्कूल लाते और फिर वापस ले जाते। चाहे भीषण गर्मी हो, बारिश हो या फिर हांड़ को कंपकंपा देने वाली ठंड। बच्चों को रोज शहर-लाने व वापस ले जाने के कारण ये खेती पर ध्यान नहींदे पाते थे, जबकि खेती ही इनकी आय का मूल स्रोत थी।

इस वजह से बाद में इन्होंने शहर में किराये से कमरा लेकर बच्चों को पढ़ने के लिए छोड़ दिया। इतनी कम उम्र में बच्चों को शहर में अकेला छोड़ देना भी इनकी मजबूरी थी। क्योंकि अगर ये खुद रहते तो खेती-पाती कौन देखता। इनकी अनुपस्थित का लाभ उठाकर बच्चे इनके भाई साहब के भी बाप निकले। वह पढ़ाई पर कम और खुराफात पर ज्यादा ध्यान देने लगे। नतीजा यह हुआ कि इनके दोनों बच्चे फेल हो गए। इन्होंने तो अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी ट्यूशन वगैरह भी लगा रखी थी, पर बच्चे न तो ट्यूशन जाते थे और न ही स्कूल।

अब इनके सामने चारों ओर से मुसीबत ही मुसीबत, बेचारे करें भी तो क्या। हालांकि बाद में काफी समझाने-बुझाने से इनके बच्चों में कुछ सुधार दिखा। बच्चों ने भी मां-बाप की मजबूरी समझी और पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया। अब इनके बच्चे भी पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

इधर, पहले वाले भाई जिन्होंने जीवन भर जिस तरह अपने भाई से बेईमानी की उसी तरह, दूसरे से भी की। अंतिम समय इन्हें व इनकी पत्‍‌नी को वह जलालत झेलनी पड़ी, जिसकी शायद इन्होंने कभी कल्पना भी नहींकी होगी। इनका अंत बहुत ही दुखांत था। लड़का दोनों (मां-बाप) को आए दिन पीटता। रोज तू-तू, मैं-मैं होती। काफी समय तक तो ये पति-पत्‍‌नी बिस्तर पर पड़े रहे। इन्हें कीड़े भी पड़ गए। ये महाशय जिनता बना गए थे, अब बेटा उसे बर्बाद कर रहा है।

दूसरे भाई के लड़के वैसे तो कमा-खा रहे हैं, पर उतना सकून से नहीं, जितना उस (जिसकों सभी ने दुत्कारा) के लड़के सकून से रह रहे हैं।

Friday, August 8, 2008

औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत

भारत भूमि ही ऐसी है, जहां लाखों लोग भगवान के 'नाम' पर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं। ये दूसरों को तो तरह-तरह की नसीहत देते हैं, पर खुद उस पर अमल नहीं करते हैं।

एक बार एक गांव में एक संत जी लोगों को प्रवचन दे रहे थे कि कभी भी किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए। अचानक एक बालक ने संत जी के पास आया और बोला, कोई ऐसा उपाय बताएं कि मुझे कभी भी किसी तरह का कष्ट न हो।

संत जी बोले, कभी किसी पर क्रोध मत करना। बालक ने दोबारा पूछा, जी समझा नहीं, संत जी ने कहा, किसी पर क्रोध मत करना। बालक ने फिर पूछा, इस पर संत जी आगबबूला हो उठे। उन्होंने पास में रखा डंडा उठाकर उसे पीटना शुरू कर दिया। कहने लगे इतनी देर से मैं बक-बक कर रहा हूं और इसकी समझ में ही नहीं आता है। यह देख वहां मौजूद लोग दंग रह गए।

कुछ देर बाद बालक बोला, संत जी-अभी आप ही कह रहे थे कि कभी किसी पर क्रोध पर करना और आप खुद ही इस तरह का आचरण कर रहे हैं। आप पहले खुद क्रोध से मुक्त हो, उसके बाद ही दूसरों को सिखाएं तो ठीक भी है।

इसी तरह से दूसरों को उपदेश देने वाले न जाने कितने संत देशभर में कुकुरमुत्तों की तरह दिख जाएंगे।
एक बार एक आदमी ने साधू से पूछा, मेरी बीवी बहुत परेशान करती है। कोई उपाय बताएं? साधू बोला, अगर उपाय होता तो मैं साधू क्यों बनता।

हां, अगर देखा जाए तो इस साधू के कथन में कुछ सच्चाई दिखती है। यह हकीकत है कि देश में न जाने कितने ऐसे लोग हैं, जो पारिवारिक जिम्मेदारी न उठा पाने के कारण संत बन गए। और कुछ ऐसे भी है कि जब उनसे कोई भी बुरा काम नहीं बचा, तब आखिर में जाकर वह संत हो गए।

संत के लिए तो एक कुटी ही काफी है, उसे भौतिकवादी चीजों से क्या लेना-देना। पर आजकल के संतों का आश्रम किसी पांच सितारा होटल से कम नहीं दिखता है। बस इतना ही नहींउनके आगे-पीछे वाहनों का काफिला भी देखा जा सकता है। जो कहींपर न मिले वह इन तथाकथित संतों के पास मिलेगा।

इनके एक इशारे पर भक्त खून की होली खेलने के लिए तैयार रहते हैं। और ये भगवान के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं। किसी भी नामी-गिरामी संत को ले लो तो वह जरूर कभी न कभी किसी स्कैंडल को लेकर चर्चा में जरूर रहा होगा।

भोले-भाले लोगों को धर्म, कर्म के नाम पर लूट रहे ये संत क्या आतंकियों से कम घातक हैं? कब तक लोग इनके जाल में फंसे रहेंगे?

Thursday, August 7, 2008

..ख्वाहिश जो पूरी न हो सकी

औलाद की खातिर लोग क्या कुछ नहीं करते हैं, पर उसने सिर्फ इसलिए अपने जिगर के टुकड़े की जान ले ली, क्योंकि वह खेत में काम करने के बजाए मदरसा पढ़ने के लिए चला गया।

आर्थिक तंगी की दौर से गुजर रहा इस परिवार का मुखिया चाहता था कि उसका बेटा पढ़ना छोड़कर खेतों में काम करे, ताकि मजदूरी से प्राप्त आय से घर की जरूरतों को पूरा किया जा सके जबकि उसका बेटा पढ़ना चाहता था। इस बात को लेकर पति-पत्नी के बीच भी अक्सर झगड़ा होता था, क्योंकि लड़के की मां बेटे को पढ़ाना चाहती थी।

लड़का जब मदरसे से लौटा तो इस बात को लेकर पति-पत्नी में फिर झगड़ा हुआ। झगड़े में बेटे ने अपनी मां का साथ दिया। इस बात से गुस्साए बाप ने बेटे को पीटना शुरू कर दिया, जिससे उसकी घटनास्थल पर ही मौत हो गई। नशे में धुत परिवार का मुखिया इतने गुस्से में था कि पिटाई के दौरान उसके पुत्र की मौत हो जाने के बाद भी वह उसे पीटता रहा।

जब इन महाशय को बेटे के अरमानों का गला ही घोंटना था तो फिर उसे जन्म क्यों दिया।

Tuesday, August 5, 2008

...और मुर्दा बोल उठा, पानी पिलाओ

हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिला स्थित नयना देवी में रविवार को हुआ हादसा प्रशासन की लापरवाही की देन तो था ही, पर हैरानीजनक तथ्य यह है कि हादसे के बाद भी प्रशासन ने कोई चौकसी नहीं दिखाई और जल्द से जल्द हादसे के निशान मिटाने में जुट गया।

प्रशासन की लापरवाही का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिना जांच के एक घायल को मृत मान लिया गया तथा बेहोशी की हालत में उसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। शव वाहन में लद कर घायल अस्पताल पहुंचा।

जब उसे कफन में लपेट कर पोस्टमार्टम के लिए भेजा जा रहा था तो अचानक उसकी चेतना वापस आ गई और उठ बैठा। उसने उठते ही पानी मांगा। वहां मौजूद लोग भी इस दृश्य को देख भौचक्का रह गए।

Monday, August 4, 2008

धिक्कार है ऐसी जिंदगी को

उसने अपने पूरे परिवार को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया। इसका कारण बनी उसकी शराब की लत। जी हां, हम बात कर रहे हैं एक ऐसे व्यक्ति की, जिसके पास काफी धन-दौलत और जमीन-जायजाद थी। लेकिन उसे ऐसी शराब की लत लगी कि उसने सब कुछ बेच डाला। यहां तक कि उसने अपने घर को भी बेच डाला। उसके दो लड़के, एक लड़की, पत्‍‌नी और खुद वह आज पाई-पाई को मोहताज है।

बच्चों को तो उसे बाप कहते हुए शर्म आती है और पत्‍‌नी को पति कहने से। क्योंकि उसने अपने बच्चों व पत्‍‌नी के लिए कुछ रखा ही नहीं। उसके दो बच्चे बड़ा लड़का व लड़की तो अपने ननिहाल में रह रहे हैं, जबकि छोटा लड़का अपनी मां के पास रह रहा है। ननिहाल से लड़की की शादी हुई, पर मां-बाप उसमें शरीक नहीं हुए। मां व छोटा भाई तंगहाली के चलते नहीं जा सके, जबकि बाप जो हर वक्त शराब के नशे में ही रहता है, उसे जब अपना होश नहीं रहता है तो वह शादी में कैसे शिरकत करता।

ये महाशय जिनके यहां कभी सैकड़ों लोग मेहनत-मजदूरी करते थे, आज ये खुद उनके यहां मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं। वह भी अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए नहीं बल्कि शराब के लिए। पत्‍‌नी व बेटे के लिए इन्होंने कुछ रखा ही नहीं। अपने जिस घर को इन्होंने बेच डाला था, पत्‍‌नी व छोटे बेटे ने इधर-उधर से रुपयों का जुगाड़ कर उसे खरीद लिया था, हालांकि वह अभी उसका ऋण अदा कर रहे हैं।

परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तो मां-बाप की होती है, पर यहां छोटा बेटा मां-बाप का भरण-पोषण कर रहा है। फिर भी ये महाशय अपनी हरकतों से बाज नहींआते हैं। कभी ये शराब के लिए घर में रखा अनाज, तो कभी बर्तन तक बेचने से गुरेज नहीं करते हैं।

हद तो तब हो गई, जब बेटा एक गाय लेकर आया और ये महाशय घर से तो उसे चराने गए पर उसे बाजार में बेच डाला और देर रात शराब के नशे में चूर होकर घर लौटे। हालांकि इस घटना के बाद मां-बेटे ने इनकी खूब पिटाई की, पर ये महाशय सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। शराब के लिए कभी-कभार इधर-उधर हाथ भी मार लेते हैं। काश! ये महाशय यदि अब भी सुधर जाएं तो मां-बेटे की मुश्किलें कुछ आसान हो जाएं।

Sunday, August 3, 2008

काश! न फैलती अफवाह

वहीं दिन, वैसा ही माहौल...और वैसा ही हादसा, वैसी की चीत्कार...नयना देवी मंदिर में आज से 25 साल पहले 1983 में भी ऐसा ही हादसा हुआ था। तब भी भगदड़ मची थी और करीब 55 लोग मारे गए थे। आज भी श्रावण नवरात्र का दूसरा दिन था, तब भी श्रावण नवरात्र का दूसरा ही दिन था। तब भी अफवाह ने ही भगदड़ मचाई थी और आज भी वैसा ही हुआ।

उस वक्त किसी ने सीढि़यों के गिरने की अफवाह फैला दी और भगदड़ मच गई थी, और आज मंदिर मार्ग पर सिंह द्वार पर ऊपर पहाड़ी से पत्थर गिरने की अफवाह फैलने से रेलिंग टूटने के बाद मची भगदड़ से यह हादसा हुआ। हादसे में करीब सौ लोगों की मौत हो गई।

अब भले ही हादसे के बाद हिमाचल सरकार ने प्रदेश के मंदिरों में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए नियम व व्यवस्था बनाने का ऐलान किया है। अगर पहले हादसे से सरकार चेत जाती और मंदिरों में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए नियम व व्यवस्था बनाती तो शायद इतने लोगों की जानें न जातीं।

कब तक ऐसी अफवाहें फैलती रहेंगी और जानें जाती रहेंगी?

'दोस्ती'

दोस्ती, कहने को तो यह एक शब्द मात्र है। लेकिन, विश्वास, प्यार, अपनापन इसमें समाहित है। यहीं जिंदगी में रंग घोलता है। विश्वास पर अडिग रह कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। जरूरत पड़ने पर प्यार न्योछावर करता है। कभी अकेले में इसका अपनापन जीने की चाहत बढ़ाता है। है न बहुत कुछ॥और भी कुछ..!

दोस्ती बयान करने के लिए शब्द कम पड़ जाएं। पर, अहसास बयां नहीं हो सकता है। है ही ऐसा रिश्ता। तनहा जिंदगी और लंबा सफर। ऐसे में दोस्ती॥सही माने तो इस शब्द की सभी को जरूरत है। हर किसी की जिंदगी में इसका विशेष स्थान है। इस रिश्ते के बिना जिंदगी कुछ अधूरी सी लगती है। बात दिल की हो या दर्द बांटने की..दोस्त का कंधा हर समय तैयार रहता है।

सच ही कहा है॥हर मंजिल हो जाती आसान, हर भवर में किनारा मिलता है। ऐ दोस्त तेरा साथ रहे, हर दर पर ठिकाना मिलता है। हो कोई भी गम या मजबूरी। दोस्त का दामन हर मुश्किल से निकाल देता है। पौराणिक हो या आधुनिक समय, सभी को दोस्ती से बल और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली है। 'रामायण' की बात करते हैं। लंका पर चढ़ाई के लिए राम को सुग्रीव का साथ मिला। वानर राज सुग्रीव ने प्रभु राम को हर संभव मदद की, परिणाम लंका विजय और रावण वध।

अब बात करते है 'महाभारत' की। कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता के लिए अपने सगे भाई पांडवों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। सच है दोस्ती अपने ही बनाई जाती है और अपने ही तरीके से इसे निभाया भी जाता है।

Saturday, August 2, 2008

ये कैसा फरमान

उसने अपने जिगर के टुकड़े और पौत्र को बहू से अलग कर दिया। बहू का कसूर सिर्फ इतना था कि वह अपने बेटे को चाचा से लड़ते देख बीच-बचाव करने पहुंच गई। लेकिन इसे अनहोनी कहें या फिर कुछ और। बीच-बचाव के दौरान अचानक चाचा गिर गया और उसकी मौत हो गई। और उसे मार डालने का दोष लगा बहू पर।

फिर क्या था उसे (बहू को) तरह-तरह की बातें सुननी पड़ी। यहां तक कि उसे अपने जिगर के टुकड़े व पति से भी दूर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया। यह सब किसी और ने नहीं बल्कि उसकी सास ने किया।

उसकी सास ने अपने बेटे से स्पष्ट रूप से कह दिया कि या तो इस घर में बहू रहेगी या फिर मैं। पति और जिगर के टुकड़े ने भी उसे हत्यारा मान लिया और उसे बेघर कर दिया। अब वह इस वक्त अपने पुराने घर में रह रही है।

परिजन किसी न किसी के माध्यम से उसे खाद्य सामग्री वगैरह पहुंचा देते हैं। पर सिर्फ इतना ही क्या उसके लिए काफी है। वह न तो अपने जिगर के टुकड़े से बात कर सकती है और न हीं पति से। हालांकि जो चला गया, अब वह तो लौट कर आने से रहा। बावजूद उसके उसके परिजनों की नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है।

लोगों ने तानों ने उसका जीना दूभर कर दिया है। जब घर के लोग उसके साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोग भी तो उसे तानें मारने से बाज नहीं आएंगे। हालांकि जिगर के टुकड़े के न रहने का गम मां को तो उम्र पर तड़पाता रहेगा, पर बहू को इस तरह से बेघर कर देना ठीक नहीं है।

बहू जिस तरह से अपनी जिंदगी का एक-एक पल काट रही है, उसे देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जाने वाला तो लौट के आने से रहा फिर क्या इस तरह की सजा देना उचित है?

Friday, August 1, 2008

जख्म जो नासूर बन गए

उसने सिर्फ इसलिए अपनी पत्‍‌नी को छोड़ दिया, क्योंकि उसे पुत्ररत्‍‌न की प्राप्ति नहीं हो सकी, जबकि उसके दो बेटी हैं। पत्‍‌नी को छोड़ने वाले ये महाशय कोई और नहीं बल्कि दूसरों को ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले गुरूजी हैं, जबकि इनकी पत्‍‌नी भी शिक्षक थी।

गुरूजी ने अपनी दो मासूम बच्चियों और पत्‍‌नी को छोड़ने से पहले यह भी नहीं सोचा कि वे किसके सहारे रहेंगी। क्या इन्होंने इसीलिए शादी की थी? या फिर साथ जीने-मरने की कसमें खाई थीं। भले ही आज सब कुछ बदल गया हो, पर शायद कुछ लोगों की मानसिकता में बदलाव नहींआया है। अगर आया होता तो शायद ये महाशय बेटे के लिए पत्‍‌नी व पुत्रियां नहीं छोड़ते। क्योंकि आज कई ऐसे बेटे भी हैं, जो अपने मां-बाप का नाम डुबो देते हैं और कई ऐसी बेटियां हैं जो मां-बाप का नाम रोशन करती हैं। फिर ये महाशय तो दूसरों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते थे, इतनी अज्ञानी कैसे बन गए।

उस मां की जितनी भी तारीफ की जाए, वो कम है। क्योंकि भले ही पति ने उसका साथ छोड़ दिया, पर उसने हार नहीं मानी। जीवन में कई तरह की मुश्किलों से संघर्ष कर उसने अपनी बेटियों की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी। समय के साथ-साथ अब उसकी दोनों बेटी भी बड़ी हो गई हैं। इस वक्त दोनों बेटी भी दूसरों को ज्ञान बांट रही हैं, जबकि इनकी मां अब अध्यापक पद से रिटायर हो गई है। बेटी मां-बाप की तरह सरकारी नौकरी तो नहीं पा सकीं, पर वह प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाती हैं।

बड़ी बेटी उसी शहर में पढ़ाती है, जिस शहर में उसका बाप एक अन्य महिला के साथ शादी कर रह रहा है। अब उसके एक बेटा भी है। बेटी रिश्तेदार के यहां रहती है और बाप से यह भी नहीं होता है वह यह कहे कि जो हुआ सो हुआ दूसरों के यहां क्यों मेरे पास रहो बेटी। छोटी बेटी दूसरी जगह पढ़ाती है। बड़ी बेटी की उम्र शादी लायक हो गई है। इसके चलते मां की चिंता और बढ़ गई है। हालांकि उसने अपनी बेटी के लिए लड़के की तलाश भी शुरू कर दी है।

समय के साथ-साथ अब उसके जख्म नासूर बन गए हैं। वह जहां भी बेटी के लिए लड़का देखती है या फिर उसकी शादी की बात चलाती है। तो सबसे पहले यहीं सवाल पूछा जाता है कि लड़की के पिताजी क्यों नहीं आए। वो क्या करते हैं, बार-बार आप ही आती हैं, वो क्यों नहींआते हैं। इसी तरह से कई प्रश्न उससे किए जाते हैं, पर वह इनका क्या जवाब दे। बाप की सेहत पर तो कई असर नहीं पड़ा है, पर मां दर-दर की ठोकरें खा रही है बेटी की शादी के लिए। कैसी होगी उसकी लाडली की शादी। जब तक दोनों लाडली बेटियों की शादी नहीं हो जाती, तब तक उसे कैसे सुकून मिलेगा।

खैर, वक्त के साथ-साथ गहरे से गहरे जख्म भी भर जाते हैं, पर इन मां-बेटियों के जख्म भी क्या भर सकेंगे। आज ये हालात हैं कि पत्‍‌नी को उसे पति कहने में शर्म आती है और बेटी तो उससे बात करना भी गंवारा नहीं समझती हैं। भले ही मां को रात-दिन नींद न आती हो, पर बाप की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा है। उसे अपने किए का भी पछतावा नहीं है। और उस मां से पूछों जिसे दिन-रात अपनी लाडली बेटियों की शादी की चिंता सोने नहीं देती।