Saturday, August 2, 2008

ये कैसा फरमान

उसने अपने जिगर के टुकड़े और पौत्र को बहू से अलग कर दिया। बहू का कसूर सिर्फ इतना था कि वह अपने बेटे को चाचा से लड़ते देख बीच-बचाव करने पहुंच गई। लेकिन इसे अनहोनी कहें या फिर कुछ और। बीच-बचाव के दौरान अचानक चाचा गिर गया और उसकी मौत हो गई। और उसे मार डालने का दोष लगा बहू पर।

फिर क्या था उसे (बहू को) तरह-तरह की बातें सुननी पड़ी। यहां तक कि उसे अपने जिगर के टुकड़े व पति से भी दूर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया। यह सब किसी और ने नहीं बल्कि उसकी सास ने किया।

उसकी सास ने अपने बेटे से स्पष्ट रूप से कह दिया कि या तो इस घर में बहू रहेगी या फिर मैं। पति और जिगर के टुकड़े ने भी उसे हत्यारा मान लिया और उसे बेघर कर दिया। अब वह इस वक्त अपने पुराने घर में रह रही है।

परिजन किसी न किसी के माध्यम से उसे खाद्य सामग्री वगैरह पहुंचा देते हैं। पर सिर्फ इतना ही क्या उसके लिए काफी है। वह न तो अपने जिगर के टुकड़े से बात कर सकती है और न हीं पति से। हालांकि जो चला गया, अब वह तो लौट कर आने से रहा। बावजूद उसके उसके परिजनों की नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है।

लोगों ने तानों ने उसका जीना दूभर कर दिया है। जब घर के लोग उसके साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोग भी तो उसे तानें मारने से बाज नहीं आएंगे। हालांकि जिगर के टुकड़े के न रहने का गम मां को तो उम्र पर तड़पाता रहेगा, पर बहू को इस तरह से बेघर कर देना ठीक नहीं है।

बहू जिस तरह से अपनी जिंदगी का एक-एक पल काट रही है, उसे देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जाने वाला तो लौट के आने से रहा फिर क्या इस तरह की सजा देना उचित है?

2 Comments:

At August 2, 2008 at 9:18 PM , Blogger Anil Kumar said...

औरत ही औरत को मारती है।

 
At August 2, 2008 at 9:35 PM , Blogger समयचक्र said...

behad dukhad.

 

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