Sunday, November 30, 2008

कुछ तो शर्म करो

उन्हें मालूम था कि आतंकी कहां से आएंगे और कहां हमला करेंगे। सिर्फ यहीं नहीं मालूम था कि वे कब हमला करेंगे। शायद इसीलिए चौकसी नहीं बरती गई। फिर भी नेताओं को शर्म तो आती नहीं।

गृहमंत्री शिवराज पाटिल खुद मानते हैं कि खुफिया तंत्र ने आतंकी हमले की सूचना पहले ही दे दी थी।

फिर भी सुरक्षा तंत्र चैन की नींद सोता रहा और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई दहलती रही। अगर सुरक्षा तंत्र समय रहते चेत जाता तो न ही इतने लोग मारे जाते और न ही जांबाज अफसर शहीद होते।

भले ही मुंबई में हुए आतंकी हमलों को देश का सबसे बड़ा आतंकी हमला बताया जा रहा हो, लेकिन प्रदेश के उपमुख्यमंत्री आरआर पाटिल इसे छोटी-मोटी वरदात मान रहे हैं। उनका कहना है कि बड़े शहरों में इस तरह की एकाध घटनाएं हो जाती हैं। पाटिल राज्य के गृह विभाग का भी कामकाज देख रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि आतंकवाद से निपटने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। और अब कह रहे हैं कि आतंकवाद पर काबू पाने के लिए मौजूदा कानून को कड़ा किया जाएगा। इनकी बातों से तो यहींलगता है कि इन्होंने न अब तक कुछ किया है और न ही आगे कुछ करेंगे। बस यूं ही बरगलाते रहेंगे।

Thursday, November 27, 2008

कैसे भरेंगे जख्म?

जब दिल्ली दहल रही थी तो गृहमंत्री शिवराज पाटिल कपड़े बदल रहे थे। और इस बार जब मुंबई दहल रही थी तो गृह मंत्रालय को यह समझ में नहीं आ रहा था कि संकट की इस घड़ी में क्या किया जाए, उसे कई घंटे संभलने में ही लग गए। इतनी देर में अस्सी से ज्यादा लोगों की जान चली गई, और करीब दो सौ लोग जख्मी हो गए। मुंबई पुलिस ने करकरे और सालस्कर जैसे जांबाज खो दिए। अब क्या वे लौट आएंगे? केंद्र हर बार ऐसा रवैया क्यों अपनाता है?

अब भले ही घडि़याली आंसू बहाए जाएं। नेता कहें घटना अफसोसजनक है, दुखद है, निंदनीय है। पर इससे क्या जिन लोग ने अपनों को खोया है, उनके जख्म भर पाएंगे?

चोरी छिपे इधर-उधर विस्फोट करने वाले आतंकी भी अब भले ही खुलकर चुनौती देने लगे हों, पर केंद्र अपनी करनी में जरा सा भी बदलाव नहीं लाया है। देशवासी नित आतंक के नए-नए रूप देख कर विचलित हैं। आतंकवाद से निपटने के लिए कोई सख्त कानून क्यों नहीं बनाया जाता?

विपक्ष को भले ही ऐन वक्त पर बड़ा मुद्दा हाथ लग गया हो और वह चुनाव में इसे भुनाए भी, पर अवाम कैसे महफूज रहे? कब तक ऐसे आतंकी हमले होते रहेंगे?

Tuesday, November 25, 2008

फिर हुए शर्मशार

राष्ट्र के प्रति हम इतने गंभीर और जागरूक हैं तभी तो कभी राष्ट्रीय ध्वज को उल्टा फहरा दिया जाता है तो कभी जमीन पर गिरा दिया जाता है, और कभी समारोह खत्म होने के बाद उसे पैरों तले रौंदा जाता है।

इस बार हरियाणा के अंबाला में एक दुकान पर ग्राहकों को नाश्ता और खाना परोसने के लिए ऐसी कागजी प्लेटों का इस्तेमाल किया गया, जिन पर राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान अंकित था।

इस घटाना ने फिर से लोगों को शर्मसार कर दिया है। हर साल इस तरह की सैकड़ों घटनाएं होती हैं। कहा जाता है कि अनजाने में ऐसा हो गया। लेकिन बार-बार ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं?

Tuesday, November 18, 2008

पुलिस सुस्त, लुटेरे चुस्त

पहले दिन : बैंक से तेईस लाख, अस्सी हजार की लूट।
दूसरे दिन : बैंकों में कैश पहुंचाने वाली वैन से सत्तरह लाख की लूट।

लूट की ये वारदातें किसी गांव या कस्बे की नहीं,बल्कि देश के सर्वाधिक सुरक्षा वाले क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी की हैं। यहां पुलिस जितनी सुस्त है, लुटेरे उतना ही चुस्त हैं। क्या ये वारदातें सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी नहींहैं? लुटेरे जहां चाहते हैं, वहां वारदात कर पुलिस को खुली चुनौती दे रहे हैं। फिर भी पुलिस कुछ नहींकर पा रही है क्यों?

इससे पहले भी इस तरह की वारदातें होती रही हैं। फिर भी किसी की गिरफ्तारी तो दूर, इन मामलों में अब तक कोई खुलासा भी नहीं हो सका है। लूट की इन वारदातों को अंजाम देकर लुटेरे शायद यहींचुनौती दे रहे हों कि 'रोक सको तो रोक लो'। मगर हम फिर भी इन्हें नहींरोक पा रहे हैं। क्या इन्हें रोका भी जा सकेगा? या फिर ये यूं ही लूटपाट करते रहेंगे?

Monday, November 17, 2008

हम नहीं सुधरेंगे

राष्ट्रीय राजधानी कितनी महफूज है यह तो सभी जानते हैं, फिर उसकी सीमा से सटे इलाके कितने महफूज होंगे यह बताने की जरूरत नहीं है।

अगर ऐसा न होता तो सोमवार को दिनदहाड़े दिल्ली में स्टेट बैंक आफ बीकानेर एंड जयपुर से 23 लाख अस्सी हजार रुपये न लूट लिए जाते। और न ही राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र के साहिबाबाद में एचडीएफसी बैंक के बाहर पेट्रोल पंप कर्मी को गोली मारकर उससे साढ़े छह लाख रुपये लूटे गए होते।

बैंक भले ही आए दिन लूटे जा रहे हों, फिर भी कुछ बैंक रामभरोसे छोड़ दिए जाते हैं। शायद, इसलिए कि लुटेरों को किसी प्रकार की दिक्कत न हो। बैंक में न तो सुरक्षा गार्ड की जरूरत नहीं होती है, और न ही सीसीटीवी कैमरे लगाने की।

अगर होती तो बवाना-बादली रोड पर बादली औद्योगिक क्षेत्र स्थित स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर लूट की यह वारदात न होती। हो सकता है कि कोई बैंककर्मी ही इस घटना में संलिप्त हो, पर बैंक की सुरक्षा में कोताही नहीं बरतनी चाहिए थी।

इस बैंक में मात्र एक सुरक्षाकर्मी तैनात है। वह भी छुट्टी पर था। जब वह छुट्टी पर था तो बैंक को सुरक्षा के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए थी। मगर इसकी जरूरत नहीं समझी गई। अगर समझी जाती तो शायद लूट न होती। यदि बदमाशों की गोली से कोई बैंक कर्मी या ग्राहक की जान चली जाती तो इसका जिम्मेदार कौन होता?

पुलिस की लापरवाही भी किसी से छिपी नहीं है,अगर ऐसा न होता तो क्या बाइक सवार दो बदमाश दूसरी घटना को अंजाम दे पाते। कब तक होती रहेंगी, इस तरह की वारदातें? और हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी पुलिस?

Sunday, November 16, 2008

मजबूती हाजिर है

पुल इतना मजबूत क्यों बनाया जाता है, जो क्षमता की जांच के दौरान की ढह जाता है? क्या इसी तरह पुल ढहते रहेंगे और निर्दोष लोगों की जान जाती रहेगी?

ये वो पुल है जो जम्मू-कश्मीर में झेलम नदी पर लगभग बन कर तैयार हो गया था, और इसे अगले सप्ताह यातायात के लिए खोला जाना था। मगर उससे पहली ही इसकी हकीकत सबके सामने आ गई।

जिन लोगों ने इस पुल को इतना मजबूत बनवाया था उनकी सेहत पर तो कोई असर नहीं पड़ा, और मारे गए बेचारे मजदूर। क्योंकि प्रशासन ने पुल की क्षमता की जांच के लिए उस पर बालू की बोरी रखी थीं, और मजदूर इन बोरियों को हटा रहे थे तभी पुल ढह गया। इस हादसे में कई मजदूरों की मौत हो गई और कई लापता हो गए।

अगर ये पुल यातायात के लिए खोले जाने के बाद ढहता, तब तो और भी जानें जातीं। हादसे के बाद भले ही जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा ने इस घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं, मगर जब पुल बन रहा था तो उस समय संबंधित विभाग और सरकार ने इस ओर क्यों ध्यान नहीं दिया गया?

मामले की जांच होने और उसकी रिपोर्ट आने से क्या हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के जख्म भर पाएंगे? या एक-दो लाख रुपये मिल जाने भर से वे खून के आंसू नहीं रोएंगे? न ही सरकार और संबंधित विभाग इस हादसे से सबक लेगा।

Sunday, November 9, 2008

कब बंद होंगे बोरवेल ?

जब तक लोग यह नहीं सोचेंगे कि मेरी जरा सी लापरवाही किसी की जान पर भारी पड़ सकती है, तब तक वे यूं ही बोरवेल खुला छोड़ते रहेंगे। और ये बोरवेल कभी आगरा के सोनू तो कभी कन्नौज के पुनीत जैसे मासूमों की जिंदगी छीनते रहेंगे।

हर बार लापरवाही किसी न किसी मासूम को निगल लेती है। आखिर कब बंद होंगे लापरवाही और लालच के बोरवेल? मासूमों से खिलवाड़ करने वालों पर कब कसेगा शिकंजा? बोरवेल की खुदाई के दौरान और बाद में सुरक्षा के क्या इंतजाम किए जाते हैं? खुले और बेकार पड़े बोरवेल और मैनहोल पर प्रशासन की निगाह क्यों नहीं जाती?

ऐसे लापरवाह लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं होती? कहीं इन हादसों का जिम्मेदार प्रशासन तो नहीं? आखिर इन मौत के गडढों पर कब लगेगा जिंदगी का ढक्कन? या फिर यूं ही इनमें गिरकर मासूम दम तोड़ते रहेंगे?

काश, बच जाए पुनीत

अगर पिछली घटनाओं से सबक लिया गया होता तो फिर उत्तर प्रदेश के कन्नौज के गुरसहायगंज में शनिवार को नौ वर्षीय पुनीत 60 फीट गहरे बोरवेल में 32 फीट पर न फंसा होता। बार-बार एक जैसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति क्यों होती है? क्यों नहीं उनसे सबक लिया जाता?

दो साल पहले कुरुक्षेत्र में प्रिंस बोरवेल में गिर गया था। उसे सेना की मदद से बचा लिया गया था। अगर पिछले माह आगरा में सोनू की बोरवेल में गिरने से हुई मौत से सबक लिया जाता तो क्या फिर ये नौबत आती? सोनू की मौत के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने मंडलायुक्तों व जिलाधिकारियों को तत्काल बोरवेल बंद कराने के निर्देश दिए थे। लेकिन क्या सिर्फ निर्देश देने भर से समस्या का समाधान हो जाएगा। जरूरत इस बात की थी कि सख्ती से इस पर अमल किया जाता।
खैर, आओ हम सब दुआ करें कि काश,बच जाए पुनीत.

Friday, November 7, 2008

ये कैसी मां?

अपने बेटे को बचाने के खातिर
उसके बच्चों को जन्म से पहले ही डाला मार
उसने इसलिए ये हथकंडा अपनाया
क्योंकि उसे तांत्रिकों ने था बहकाया
कहा था, बहू ने जो दे दिया बेटे को जन्म
तो तुम्हारा बेटा हो जाएगा खत्म
इसलिए उसने आठ बार उसका गर्भ गिरवाया
और उसे खून के आंसू रुलाया
सास को नहीं है अपने किए पर अफसोस
और वह पड़ी है बेहोश.

Tuesday, November 4, 2008

...इसीलिए तो हैं शातिर

आगे निकलने की होड़ न होती
तो हिमाचल के लंबीधर में बस न पलटती
न ही 46 लोगों की जान जाती
न ही वे विधवा होती
न बच्चे अनाथ होते
निजी बस चालक की लापरवाही
दो परिवारों पर पड़ी भारी
बुझ गए कई घरों के चिराग
फिर भी सरकार क्यों नहीं रही जाग
मोटी कमाई की खातिर ही तो हैं वे इतने शातिर
क्या कोई इन्हें दिलाएगा जिम्मेदारी का अहसास

Monday, November 3, 2008

रक्षक या भक्षक?

जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो क्या होगा? हरियाणा पुलिस के कारनामें ही कुछ ऐसे हैं। कभी वह महिला के रेप को लेकर चर्चा में रहती है तो कभी निर्दोष टैक्सी ड्राइवर को गोली से उड़ा देने पर।

इस बार एक बेगुनाह युवक को पुलिस ने अपराधी समझकर एनकाउंटर में मार गिराया। हालांकि पुलिस इसे गलतफहमी का नतीजा बता रही है, लेकिन इनकी करतूत ने दो परिवारों की खुशियों को मातम में बदल दिया।

जो युवक पुलिस की गोलियों का शिकार बना, उसकी 15 दिन बाद शादी होने वाली थी। ऐसे पुलिस वालों को क्या इनाम दिया जाए? क्यों आए दिन बेगुनाहों के खून से लाल हो रही है खाकी?