Thursday, January 29, 2009

क्या करे अवाम?

मेरा भारत महान
चांद उससे भी महान
क्या करे अवाम?
घर तो संभलता नहीं
कैसे संभालेंगे देश?
जाने कहां गए वो िदन...
अब क्या होगा िफजा का?
कैसे आएगी िफजा के फूल में बहार?
अब तो नींद की गोली भी नहीं दे रही साथ.

Friday, January 23, 2009

...कब आती है शर्म

उन्हें तब शर्म नहीं आती, जब मकान के आगे एक बड़े से बोर्ड पर यह लिखा हुआ दिखता है कि यहां कमरें खाली हैं। न ही किराएदार रखने में शर्म आती है। न ही जब मकान में कोई कमरा खाली होता है तो दूसरे किराएदारों से यह कहने में कि कोई पूछे तो बता देना कि हम जहां रहते हैं, वहां कमरा खाली हुआ है। न ही किराएदारों से मनमाना किराया और बिजली-पानी का बिल वसूल करने में।

शर्म तो तब आती है, जब किराएदार उनसे किराए की रसीद मांगते हैं तो उसे देने में। या फिर बिजली, पानी, टेलीफोन के बिल की फोटोकापी और राशन कार्ड की फोटोकापी देने में। यह लिख कर देने में भी शर्म आती है कि ये हमारे मकान में कितने साल से रह रहे हैं, और इनका मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड बनने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

थाने में किराएदारों का पंजीकरण कराने में भी वो सकुचा जाते हैं। भले ही किराएदारों का पंजीकरण न कराने पर जुर्माने का प्रावधान हो, पर इन्हें कहां परवाह। इन्होंने तो बस मानों ठान ली है कि हम नहीं सुधरेंगे। तभी तो ऐसा कर रहे हैं।

फिर किराएदार कैसे बनवाएं मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड। ऐसा नहीं है कि सभी मकान मालिकों की मानसिकता इस प्रकार की है, पर अधिकांश की जरूर है। हो सकता है कि जो आज किसी मकान के मालिक हैं, वे भी तो कभी किराएदार रहे होंगे? तब हो सकता है कि इनके साथ ये सब मुश्किलें पेश आई हों, इसीलिए शायद ये उसे ब्याज समेत वसूल रहे हैं।

जब राष्ट्रीय राजधानी में इस तरह की मनमानी हो रही है तो शहरों के क्या कहने..किसी के मकान में किराए से रहना क्या गुनाह है? मकान मालिकों की किराएदारों के प्रति ये कैसी मानसिकता है? क्या इसका कोई इलाज नहीं? ये कब सुधरेंगे?

Friday, January 9, 2009

लूट सको तो लूट लो (6)

हड़ताल से भले ही किसी का खास फायदा न हुआ हो, पर उन्होंने खूब चांदी कूटी। कूटते भी क्यों न आखिर ऐसा मौका बार-बार तो आता नहीं है। इसीलिए मौके की नजाकत समझते हुए उन्होंने तीन सौ पांच रुपये में मिलने वाला रसोई गैस सिलेंडर आठ सौ रुपये तक ब्लैक में बेचा। और उन्होंने प्रति किलो गैस भी सौ से लेकर एक सौ बीस रुपये किलो तक बेची।

जिनके पास रसोई गैस कनेक्शन नहीं थे, उन्होंने मजबूरी में खरीदी। अगर न खरीदते तो खाना कैसे बनता। कईयों की तो पेट्रो मैक्स या छोटे गैस सिलेंडर में एक किलो गैस भरवाने में ही पूरी दिहाड़ी खत्म हो गई। इन लोगों ने भले ही हड़ताल करने वालों और सरकार को कोसा हो, पर रसोई गैस की कालाबाजारी करने वाले यहींकह रहे होंगे कि रोज इसी तरह हड़ताल होती रहे और अपनी पौ बारह होती रहे।
[क्रमश:]

Sunday, January 4, 2009

लूट सको तो लूट लो (5)

भोले-भाले यात्रियों को किस तरह लूटा जाता है, यह कोई बस कंडक्टरों से सीखे। भले ही इन्हें मोटी पगार मिलती हो पर जब तक ये भोले-भोले यात्रियों से पैसे नहीं ऐंठ लेते हैं, तब तक इन्हें सकून नहीं मिलता है। अन्य परिवहन डिपो की बसों में भले ही कंडक्टर यात्रियों के पास जाकर टिकट बना देता हो, और शेष बचे उनके पैसे भी लौटा देता हो। पर उत्तर प्रदेश परिवहन की अधिकांश बसों में न तो कंडक्टर यात्रियों के पास जाकर टिकट बनाते हैं और न ही उन्हें शेष पैसे वापस लौटाते हैं। हां, टिकट पर पीछे शेष बचे पैसे जरूर लिख देते हैं। ऐसा नहीं कि इनके पास खुले पैसे नहीं होते हैं, पर अगर ये पैसे लौटा देंगे तो फिर कमाई कैसे करेंगे?

इनकी यह कोशिश रहती है कि कुछ को तो याद भी नहीं रहेगा कि उन्हें वापस पैसे लेने भी हैं, और कुछ को यह कहकर चुप करा दिया जाएगा कि खुले पैसे ही नहीं है। जिनके पास खुले पैसे होंगे उन्हें तो शेष बचे पैसे लौटाने ही पड़ेंगे। अन्य परिवहन डिपो की बसों के टिकट में भले ही इस बात का जिक्र होता हो कि यहां से यहां तक का टिकट इतने का है, पर इस परिवहन डिपो के टिकटों में वो भी नहीं दिखता है। सिर्फ इतना ही लिखा होता है कि इतने से इतने तक का टिकट। यानी किसी यात्री का टिकट अगर दो सौ पचपन रुपये का है तो उसे जो टिकट दिया जाएगा, उस पर लिखा होगा दो सौ पचास से तीन सौ रुपये तक का टिकट।

इसी के चलते कुछ यात्रियों को तो दो सौ पचपन के टिकट के बदले तीन सौ रुपये तक देने पड़ जाते हैं। क्योंकि कंडक्टर कह देते हैं कि तीन सौ का टिकट है। और यात्रियों की मजबूरी का फायदा उठाने से भी बस कंडक्टर बाज नहीं आते हैं। अगर किसी के पास ज्यादा सामान है तो उसके पैसे तो ये ले लेते हैं, पर टिकट नहीं देते। इसी तरह कम दूरी की यात्रा करने वाले अधिकांश यात्रियों से भी ज्यादा पैसे लिए जाते हैं, और टिकट भी नहीं दिया जाता। अगर कभी-कभार चेकिंग हो भी जाए तो कह दिया जाता है कि ये यात्री तो अभी यहीं से बैठे हैं, और इनका टिकट तो बनाया जा रहा है।

चूंकि देर रात और सुबह तड़के कम बसें चलती हैं, इस कारण जिन यात्रियों को जाने की मजबूरी होती है उन्हें जितने का टिकट होता है, उससे दो से तीन गुना तक भी पैसे देने पड़ जाते हैं। अगर किसी यात्री से ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं। या फिर उससे पैसे भी ले लिए जाते हैं और टिकट नहीं दिया जाता तो कोई भी उसके हक में जुबां खोलने को तैयार नहींहोता है। इसलिए कि हम क्यों इनके विवाद में पड़ें। ये शायद यह भूल जाते हैं कि आज जो इनके साथ हो रहा है कल मेरे या मेरे किसी परिजन या मित्र के साथ भी हो सकता है। फिर क्या करेंगे?

[क्रमश:]

Friday, January 2, 2009

लूट सको तो लूट लो (4)

लालू की रेल कहीं और फायदे में न पहुंच जाए, इसका खास ख्याल रखा जा रहा है। इसीलिए तो भोले-भाले यात्रियों से कहा जाता है कि जितने का टिकट लोगे उसके आधे पैसे में हम ले चलेंगे। बताओ कहां जाना है? अगर बैठ कर सफर करना चाहते हो तो जितने का टिकट मिलता है, उसके आधे पैसे दे देना और अगर आराम से सोते हुए सफर करना चाहते हो तो जितने का टिकट मिलता है उतने पैसे दे देना। टिकट के लिए लाइन में लगने की कोई जरूरत नहीं है। आओ मेरे साथ। ये कोई और नहीं, बल्कि जिन पर यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है वो कहते हैं।

साथ ही, यह भी कहा जाता है कि अगर अनारक्षित टिकट लोगे भी तो क्या गारंटी है कि सीट मिल ही जाएगी। मगर हम इस बात की गारंटी दिलाते हैं कि जैसी चाहोगे वैसी सीट मिलेगी। चाहे बैठ कर चलो या लेटकर। यह सुनते ही दस-बीस यात्री वर्दी वालों के साथ चल पड़ते हैं। वर्दीवाले यात्रियों को ले जाकर बाकायदा नाश्ता वगैरह भी कराते हैं। फिर यात्रियों को समझाते हैं कि देखो डरने की बात नहीं है। अगर डिब्बे में कोई टिकट चेक करने आए तो कह देना कि हम साहब के साथ हैं। और हम तुमसे अभी पैसे नहीं लेंगे, जब मर्जी की सीट मिल जाए तब पैसे दे देना।

उसके बाद ये लोग ट्रेन के आने का इंतजार करने लगते हैं। जैसे ही स्टेशन पर ट्रेन रुकती है वर्दीवाले यात्रियों को साथ लेकर डिब्बे के गेट पर पहुंचते हैं। डिब्बे में भले ही तिल रखने की भी जगह न हो, पर जैसे ही ये वर्दी वाले अपना रौब दिखाना शुरू करते हैं, वैसे ही सीटें खाली होने लगती हैं। इनको सिर्फ इतना ही करना होता है कि दो-चार डंडे दस-पांच यात्रियों पर बरसाने होते हैं। और यात्री हाय बाबू जी कह कर सीट खाली कर देते हैं। कुछ ही देर में जो यात्री इन वर्दीवालों के साथ आते हैं, उनके बैठने और लेटने की व्यवस्था हो जाती है।

बाद में खुद भी ये अपने लेटने का भी जुगाड़ कर लेते हैं। फिर शुरू होता है वसूली का दौर। वसूली के बाद ये आधे-आधे पैसे का बंटवारा कर लेते हैं। और फिर लंबी तानकर सो जाते हैं। उसके बाद स्टेशन आते ही यात्रियों को बाकायदा बाहर तक छोड़ जाते हैं, ताकि कोई इनसे टिकट न मांग ले। इस तरह इनकी दिहाड़ी तो पक्की होती ही है। साथ ही, ऊपरी कमाई होती है सो अलग। इसी तरह ये लोग जाते समय भी कमाई करते हैं। यात्री ये सोचकर खुश होते हैं कि चलो आधे पैसे में काम हो गया, और इनकी खुशी का क्या कहना। और लालू की ट्रेन तो फायदे में चल ही रही है।
[क्रमश:]

Thursday, January 1, 2009

लूट सको तो लूट लो (3)

उनका कसूर यहीं है कि वह आम हैं और जब आम हैं तो उसका खामियाजा तो भुगतना पड़ेगा ही। अगर वे इस खामियाजे को भुगतने से बचना चाहते हैं तो फिर खास बनें, नहीं तो भुगतते रहें खामियाजा। लुटते रहें जगह-जगह...

रेलवे स्टेशन पर एक बुजुर्ग काफी देर से लाइन में टिकट कटाने के लिए खड़ा था। और जब उसका नंबर आया तो खिड़की के अंदर से आवाज आई पैसे खुले दो। बुजुर्ग ने जवाब दिया, पैसे खुले नहीं है। अंदर से फिर आवाज आई पैसे खुले नहीं हैं तो टिकट नहीं मिलेगा, चलो पीछे हटो..पता नहीं कहां-कहां से चले आते हैं।

बुजुर्ग ने कहा, अरे बाबू जल्दी टिकट दे दो नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी। फिर खिड़की के अंदर से आवाज आई ट्रेन छूटे या रहे जब तक खुले पैसे लाकर नहीं दोगे, तब तक टिकट नहीं मिलेगा। बुजुर्ग काफी देर तक मिन्नतें करता रहा..फिर थक-हार कर बोला अरे बाबू दे दो न टिकट। खिड़की के अंदर से आवाज आई पैसे लाओ। बुजुर्ग ने सौ रुपये का नोट दिया। खिड़की के अंदर से टिकट के साथ पचास रुपये वापस कर दिए गए।

बुजुर्ग बोला, बाबू जी टिकट तो इकतालीस रुपये का है और आपने मुझे वापसे किए हैं, सिर्फ पचास रुपये बाकी के नौ रुपये कहां हैं? खिड़की के अंदर से आवाज आई एक रुपया दो तो मैं नौ रुपये लौटा दूं। चूंकि बुजुर्ग के पास एक रुपया नहीं था, इसलिए उसे नौ रुपये गंवाने पड़े। अगर वह टिकट वापस करता तो उसे और नुकसान उठाना पड़ता। क्योंकि अनारक्षित टिकट वापस करने के बीस या तीस रुपये कटते हैं।

ऐसा नहीं कि ये बुजुर्ग था, इसलिए उससे रुपये ऐंठ लिए गए। न जाने कितने लोगों से इसी तरह रुपये ऐंठे जाते हैं। ऐसा नहीं है कि टिकट देने वालों के पास खुले पैसे नहीं होते हैं, सब कुछ होता है। मोटी पगार भी मिलती है, फिर भी गरीबों की खून-पसीने की कमाई पर ये नजरें गड़ाए रहते हैं। और इन्हें सब हजम भी हो जाता है।
[क्रमश:]