Friday, January 2, 2009

लूट सको तो लूट लो (4)

लालू की रेल कहीं और फायदे में न पहुंच जाए, इसका खास ख्याल रखा जा रहा है। इसीलिए तो भोले-भाले यात्रियों से कहा जाता है कि जितने का टिकट लोगे उसके आधे पैसे में हम ले चलेंगे। बताओ कहां जाना है? अगर बैठ कर सफर करना चाहते हो तो जितने का टिकट मिलता है, उसके आधे पैसे दे देना और अगर आराम से सोते हुए सफर करना चाहते हो तो जितने का टिकट मिलता है उतने पैसे दे देना। टिकट के लिए लाइन में लगने की कोई जरूरत नहीं है। आओ मेरे साथ। ये कोई और नहीं, बल्कि जिन पर यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है वो कहते हैं।

साथ ही, यह भी कहा जाता है कि अगर अनारक्षित टिकट लोगे भी तो क्या गारंटी है कि सीट मिल ही जाएगी। मगर हम इस बात की गारंटी दिलाते हैं कि जैसी चाहोगे वैसी सीट मिलेगी। चाहे बैठ कर चलो या लेटकर। यह सुनते ही दस-बीस यात्री वर्दी वालों के साथ चल पड़ते हैं। वर्दीवाले यात्रियों को ले जाकर बाकायदा नाश्ता वगैरह भी कराते हैं। फिर यात्रियों को समझाते हैं कि देखो डरने की बात नहीं है। अगर डिब्बे में कोई टिकट चेक करने आए तो कह देना कि हम साहब के साथ हैं। और हम तुमसे अभी पैसे नहीं लेंगे, जब मर्जी की सीट मिल जाए तब पैसे दे देना।

उसके बाद ये लोग ट्रेन के आने का इंतजार करने लगते हैं। जैसे ही स्टेशन पर ट्रेन रुकती है वर्दीवाले यात्रियों को साथ लेकर डिब्बे के गेट पर पहुंचते हैं। डिब्बे में भले ही तिल रखने की भी जगह न हो, पर जैसे ही ये वर्दी वाले अपना रौब दिखाना शुरू करते हैं, वैसे ही सीटें खाली होने लगती हैं। इनको सिर्फ इतना ही करना होता है कि दो-चार डंडे दस-पांच यात्रियों पर बरसाने होते हैं। और यात्री हाय बाबू जी कह कर सीट खाली कर देते हैं। कुछ ही देर में जो यात्री इन वर्दीवालों के साथ आते हैं, उनके बैठने और लेटने की व्यवस्था हो जाती है।

बाद में खुद भी ये अपने लेटने का भी जुगाड़ कर लेते हैं। फिर शुरू होता है वसूली का दौर। वसूली के बाद ये आधे-आधे पैसे का बंटवारा कर लेते हैं। और फिर लंबी तानकर सो जाते हैं। उसके बाद स्टेशन आते ही यात्रियों को बाकायदा बाहर तक छोड़ जाते हैं, ताकि कोई इनसे टिकट न मांग ले। इस तरह इनकी दिहाड़ी तो पक्की होती ही है। साथ ही, ऊपरी कमाई होती है सो अलग। इसी तरह ये लोग जाते समय भी कमाई करते हैं। यात्री ये सोचकर खुश होते हैं कि चलो आधे पैसे में काम हो गया, और इनकी खुशी का क्या कहना। और लालू की ट्रेन तो फायदे में चल ही रही है।
[क्रमश:]

5 Comments:

At January 2, 2009 at 10:00 PM , Blogger विवेक सिंह said...

भाई पब्लिक तो अपना फायदा देखती है . प्रशासन सोता रहे !

 
At January 3, 2009 at 11:52 AM , Blogger अनुनाद सिंह said...

यह बहुत ही आपराधिक एवं गम्भीर मामला है। ब्लागजगत में उठाने के लिये साधुवाद। वर्दीधारियों की यह नीच हरकत दोहरा मार कर रही है - गरीब, असहाय लोगों का उत्पीडन और सरकार को चूना।

इसका सटीक हल निकालना बहुत जरूरी है। अपना एलेक्ट्रानिक मिडिया ऐसे अपराधों को रिपोर्ट क्यों नहीं कर पाता है?

 
At January 3, 2009 at 9:32 PM , Blogger महेन्द्र मिश्र said...

जैसी राजा वैसी प्रजा
है तो गंभ्भीर मामला . सभी सरकार को चूना लगा रहे है .
सटीक अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद्.

 
At January 5, 2009 at 1:54 AM , Blogger राज भाटिय़ा said...

भाई पब्लिक जिस दिन से देश का फ़ायदा सोचे गी उस दिन यह वर्दीधारी ओर नेता सब भी डरना शुरु कर देगे, क्योकि इस पब्लिक मै ही तो हम सब है ओर इन मुलाजिमओ मै भी हमी है, जिस का जहां हाथ लगा मारा, लेकिन खुश कोई भी नही,सभी एक दुसरे से बस छीन रहे है आराम से खा कोई भी नही रहा, क्या सिस्टम है यह सारा??

 
At July 10, 2009 at 4:43 PM , Blogger Amjad said...

मैं कई बार खुद मुक्तभोगी रह चूका हूँ. कई बार तो दिल्ली से खुलने वाली ट्रेन प्लात्फोर्म पर तो आ जाती है पर उसके दरवाजे अन्दर से बंद होते हैं. ट्रेन खुलने से १० मिनट पहले दरवाजा जब खुलता है तो अंदर से ये रेलवे पुलिस वाले अलादीन के जिन् की तरह निकलते हैं. इनके हाथ में २० रूपये से लेकर १०० रूपये तक रख दो तो सीट मिलने की गारंटी है. पहले से बैठे मुसाफिरों को कैसे तितर-बितर किया जाता है, ये कोई इनसे सीखे.

 

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