Sunday, August 10, 2008

अपने भी इतने स्वार्थी

उसने अपने भाइयों को भगवान मान लिया। पर भाइयों ने उसके साथ ऐसा सलूक किया, जो गैरों से भी अपेक्षित न था। क्या अपना खून भी इतना स्वार्थी हो जाता है? क्या पैसा ही सब कुछ है और भाई कुछ नहीं?

उसने अभी होश भी नहीं संभाला था कि सिर से मां-बाप का साया उठ गया। भाइयों में सबसे छोटा अब करे भी तो क्या। खैर, एक भाई ने तरस खाकर उसे अपने पास रख लिया। जिस उम्र में बच्चे हाथों में बैग लेकर स्कूल जाते हैं, उस उम्र में उसे थमा दिया गया हल और कुदाल। 'मरता क्या न करता' की तर्ज पर उसने भी भाई ने जहां बिठाया, उस जगह पर बैठा। जैसे रखा, उस तरह से रहा। वह कभी भी टस से मस न हुआ। पर जब उसकी उम्र शादी लायक होने लगी तो वह भाई साहब के लिए बोझ बनने लगा।

अब रोजाना उसे जरा-जरा सी बात पर जलील करना आम बात हो गई। फिर भी उसने कभी अपने भाई के सामने मुंह नहींखोला। एक दिन भाई ने कहा, अब बहुत हो गया मैं काफी समय से तुम्हें पाल-पोश रहा हूं। अब मेरे बस की बात नहींहै। कोई दूसरा रास्ता देखो। उसने भाई को घर से निकाल दिया। यह सब भाई साहब ने इसलिए किया, ताकि कहींवह हिस्सा न मांग ले। और ये महाशय उसकी इतने साल की सारी कमाई भी हड़प गए।

खैर, दूसरे भाई ने हमदर्दी दिखाकर उसे अपने पास रख लिया। पर उसने भी वहींसब सलूक किया जो पहले भाई ने किया था। कुछ खास किया तो अपनी साली के साथ उसकी शादी करा दी। फिर भी भाई साहब के लिए ये दोनों घर में नौकर-नौकरानी से ज्यादा कुछ नहींथे। भाई साहब का परिवार तो शहर में रहता, और ये पति-पत्‍‌नी गांव में दिन-रात कड़ी मेहनत करते और अपनी गाढ़ी कमाई भाई साहब को पहुंचाते रहते।

खुद पति-पत्‍‌नी चीथड़े लपेटे रहते और भाई साहब का परिवार ऐशो-आराम रहता। इनका सिर्फ यहींकसूर था कि ये लोग भाई साहब को ही मांई-बाप समझ बैठे थे। भाई साहब ने इनकी गाढ़ी कमाई से शहर में मकान भी बनवा लिया, और ये गांव में खुद के नहींबल्कि भाई साहब के मकान में रहते।

भाई साहब इनसे कहते कि चिंता मत करों मैं तुम्हारे बच्चों को शहर में अपने पास रखूंगा, उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाऊंगा। ये पति-पत्‍‌नी उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते। यहां तक कि खुद ये लोग चावल की किनकी (टूटे चावल) खाते और भाई साहब को साबुत (समूने) चावल भेजते। इसी तरह दूध-घी व अन्य खाद्य सामग्री भी भेजते। यानि पति-पत्‍‌नी ने इनकी खातिरदारी में कोई भी कसर नहींछोड़ी।
धीर-धीरे समय बीतता गया।

अब इनके बच्चे भी पढ़ने लायक हो गए। हालांकि इनकी बड़ी लड़की को भाई साहब ने अपने पास रख लिया। पर उसके साथ भी यह वहींसलूक करते थे जो भाई व पत्‍‌नी के साथ। यानी पढ़ने-लिखने की उम्र में उससे घर का सारा काम कराते।

इन्होंने अपने बच्चों को तो अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया और उस मासूम को पढ़ने ही नहींदेते। हालांकि इन्होंने बाद में उसका भी एक प्राइमरी स्कूल में नाम लिखवा दिया, पर उसे स्कूल इसलिए कम जाने देते, क्योंकि अगर वह स्कूल जाएगी तो घर का काम कौन करेगा। साथ ही, इस मासूम के दो भाई भी पढ़ने लायक हो गए, जब शहर में उनके पढ़ाने की बात आई तो भाई साहब ने हाथ खड़े कर दिए। अरे मैं तो अपने परिवार का खर्चा नहींचला सकता हूं, फिर मैं तुम्हारे बच्चों को अपने पास कैसे रखूं। यानी इन्होंने उसके बच्चों को रखने से साफ मना कर दिया।

तब इन्हें ठोकर लगी, कि अरे हम दोनों (पति-पत्‍‌नी) इनके (भाई साहब) के लिए क्या नहींकिया। और इन्होंने ये सिला दिया। फिर भी इन्होंने हिम्मत नहींहारी। इन्होंने अपने बच्चों का दाखिला शहर के सबसे अच्छे स्कूल में कराया। ये रोज सुबह बच्चों को साइकिल से गांव से करीब बीस किलोमीटर दूर स्थित स्कूल लाते और फिर वापस ले जाते। चाहे भीषण गर्मी हो, बारिश हो या फिर हांड़ को कंपकंपा देने वाली ठंड। बच्चों को रोज शहर-लाने व वापस ले जाने के कारण ये खेती पर ध्यान नहींदे पाते थे, जबकि खेती ही इनकी आय का मूल स्रोत थी।

इस वजह से बाद में इन्होंने शहर में किराये से कमरा लेकर बच्चों को पढ़ने के लिए छोड़ दिया। इतनी कम उम्र में बच्चों को शहर में अकेला छोड़ देना भी इनकी मजबूरी थी। क्योंकि अगर ये खुद रहते तो खेती-पाती कौन देखता। इनकी अनुपस्थित का लाभ उठाकर बच्चे इनके भाई साहब के भी बाप निकले। वह पढ़ाई पर कम और खुराफात पर ज्यादा ध्यान देने लगे। नतीजा यह हुआ कि इनके दोनों बच्चे फेल हो गए। इन्होंने तो अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी ट्यूशन वगैरह भी लगा रखी थी, पर बच्चे न तो ट्यूशन जाते थे और न ही स्कूल।

अब इनके सामने चारों ओर से मुसीबत ही मुसीबत, बेचारे करें भी तो क्या। हालांकि बाद में काफी समझाने-बुझाने से इनके बच्चों में कुछ सुधार दिखा। बच्चों ने भी मां-बाप की मजबूरी समझी और पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया। अब इनके बच्चे भी पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

इधर, पहले वाले भाई जिन्होंने जीवन भर जिस तरह अपने भाई से बेईमानी की उसी तरह, दूसरे से भी की। अंतिम समय इन्हें व इनकी पत्‍‌नी को वह जलालत झेलनी पड़ी, जिसकी शायद इन्होंने कभी कल्पना भी नहींकी होगी। इनका अंत बहुत ही दुखांत था। लड़का दोनों (मां-बाप) को आए दिन पीटता। रोज तू-तू, मैं-मैं होती। काफी समय तक तो ये पति-पत्‍‌नी बिस्तर पर पड़े रहे। इन्हें कीड़े भी पड़ गए। ये महाशय जिनता बना गए थे, अब बेटा उसे बर्बाद कर रहा है।

दूसरे भाई के लड़के वैसे तो कमा-खा रहे हैं, पर उतना सकून से नहीं, जितना उस (जिसकों सभी ने दुत्कारा) के लड़के सकून से रह रहे हैं।

5 Comments:

At August 10, 2008 at 1:03 AM , Blogger राज भाटिय़ा said...

सचिन मिश्रा जी, नमस्कार,आप ने शायद यह एक कहानी लिखी हो, लेकिन मेने अपनी आंखो से देखा हे,दुनिया मे जो हम करते हे यही भुगत कर जाना पडता हे, धन्यवाद आप ने बहुत भावुक कर दिया,बहुत सी ऎसी कहानिया हमारे आस पास घटती हे.आप से एक विनीती न्हे आप यह*शब्द पुष्टिकरण* हटा दे इस से टिपण्णी करने मे मुस्किल होती हे, धन्यवाद

 
At August 10, 2008 at 1:59 AM , Blogger सचिन मिश्रा said...

भाटिया जी, प्रणाम; यह कहानी नहीं हकीकत है। टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

 
At August 10, 2008 at 3:28 AM , Blogger Udan Tashtari said...

हर तरह के लोग हैं और हर तरह के किस्से. दुख होता है.

 
At August 10, 2008 at 5:20 PM , Blogger बालकिशन said...

हर तरह के लोग हैं और हर तरह के किस्से. दुख होता है.

 
At August 10, 2008 at 7:16 PM , Blogger सचिन मिश्रा said...

टिप्पणी के लिए सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद

 

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