Wednesday, October 29, 2008

उसे चाहिए जवाब

उसे सिर्फ इसलिए पीटकर मार डाला गया, क्योंकि वह उत्तर भारतीय था। उसके साथियों की न सिर्फ पिटाई की गई, बल्कि उन्हें चलती ट्रेन में मुर्गा भी बनाया गया। यह करतूत चोर या लुटेरों की नहीं,बल्कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के हुड़दंगियों की है। क्षेत्रवाद की ओछी राजनीति करने वाले ये लोग आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? आखिर कब ये क्षेत्रवाद की राजनीति थमेगी?

जब राहुल को मारा गया था, तब यह कहा जा रहा था कि गोली का जवाब गोली ही हो सकती है। अब धर्मदेव की हत्या का जवाब किसकी हत्या से होगा? अभी तक उसके हत्यारे क्यों नहीं पकड़े गए?

वैसे तो दीपावली की रात तो उजाला लेकर आती है, पर इस परिवार में मातम का अंधेरा लेकर आई। परिवार में कोहराम मचा है। पिता को यह नहीं मालूम है कि उसके बेटे का आखिर कुसूर क्या था? उसकी मां, बहन, भाई, पत्‍‌नी और बेटी पर क्या गुजर रही होगी? परिजनों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।

उसकी तेरह माह की बेटी को यह नहीं मालूम कि ये लोग क्यों रो रहे हैं? अब वह किसको पापा कहेगी? अब उसे कौन जवाब देगा? क्या राज ठाकरे या पाटिल उससे नजरें मिला पाएंगे?

जिस तरह से महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया जा रहा है, उसी तरह से दूसरे प्रांतों में मराठियों को भी निशाना बनाया जा सकता है।

Monday, October 27, 2008

क्या गोली का जवाब गोली है?

उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री आरआर पाटिल का यह कहना कि गोली का जवाब गोली ही हो सकती है। अगर मुल्क के सभी लोग इसी तरह प्रतिशोध यानी बदले की भावना से अपने कार्र्यो को अंजाम देने लगें तो क्या होगा?

पाटिल का यह कहना कि अगर कोई पागल आदमी यदि बस में हथियार लेकर डराने की कोशिश करेगा तो उसे इसी (जिस तरह से सोमवार को मुंबई पुलिस ने राहुल को मार गिराया) भाषा में जवाब मिलेगा।

मगर क्या पुलिस ने मुंबई में हाल ही में पीटे गए उत्तर भारतीय रेलवे परीक्षार्थियों की आवाज बनने की इच्छा रखने वाले राहुल की आवाज को मुंबई पुलिस की गोलियों ने दबा नहीं दी है?

राहुल एक दिन पहले ही मुंबई आया था। यहां बेस्ट की बस 'हाइजैक' करना और हवा में गोलियां चलाना राहुल की मौत का कारण बन गया।

कई मुकदमों और गैर जमानती वारंट के बावजूद राज ठाकरे को गिरफ्तार करने में नाकाम रही पुलिस की इस 'सक्रियता' को पाटिल ने एकदम सही ठहरा दिया। पाटिल ने कहा कि पुलिस ने अपना कर्तव्य निभाया।

पुलिस और पाटिल इस घटना को 'मुठभेड़' बता रहे हैं, लेकिन कई लोग इसे हत्या बता रहे हैं। पर हकीकत क्या है? मुंबई पुलिस एक ऐसे नवयुवक के 'एनकाउंटर' को लेकर सवालों के घेरे में है, जो शुरू से यह कहता रहा कि वह किसी को हानि नहीं पहुंचाना चाहता, सिर्फ मुंबई के पुलिस आयुक्त से बात करना चाहता है। फिर उसे क्यों मारा गया?

Wednesday, October 22, 2008

कैसे कम होंगी घटनाएं?

अपराध में आए दिन इजाफा हो रहा है, सरकार भी इस बात से भलीभांति परिचित है। इसके बावजूद वह आपराधिक घटनाओं पर अंकुश लगाने के बजाए सिर्फ आंकड़े ही पेश कर रही है। जितना समय इसमें बर्बाद किया जाता है, अगर उतनी देर में इस समस्या के समाधान पर विचार किया जाए तो क्या बुराई है?

सरकार ने राज्यसभा में भले ही यह बताया हो कि देश में प्रत्येक पच्चीस मिनट में एक और हर दिन दुष्कर्म की सत्तावन घटनाएं हुई। मगर यह क्यों नहीं बताया वह इसके रोकथाम के लिए क्या कदम उठा रही है?

केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने सदन में लिखित प्रश्न के उत्तर में बताया कि वर्ष दो हजार सात के दौरान हर दिन सत्तावन और हर पच्चीस मिनट में एक बलात्कार की घटना तथा हर दिन छप्पन और छब्बीस मिनट में एक अपहरण की घटना दर्ज की गई।

हर दिन दहेज प्रताड़ना के बाईस और हर एक घंटा पांच मिनट में इसका एक मामला दर्ज हुआ। प्रतिदिन छेड़छाड़ के एक सौ छह और हर चौदह मिनट में एक यौन उत्पीड़न का हर दिन तीस और हर अड़तालीस मिनट में एक मामला दर्ज हुआ।

हर दिन दो सौ आठ तथा हर सात मिनट में पति एवं संबंधियों द्वारा उत्पीड़न की एक घटना दर्ज हुई।

मगर यह खुलासा क्यों नहीं किया गया कि इनमें से कितने मामलों पर कार्रवाई हुई है? क्या सिर्फ आपराधिक मामले दर्ज कर लेने से ही उसका समाधान हो जाएगा? कड़ाई से कार्रवाई क्यों नहीं होती?

Monday, October 20, 2008

...तो उनका क्या होगा?

अपराध करने पर अगर सजा नहीं मिलेगी तो फिर अपराधी के हौंसले बुलंद होंगे ही। ऐसा ही कुछ राज ठाकरे के साथ हो रहा है। अगर पहली बार ही उसे अपने किए की सजा मिल जाती तो दोबारा वह दबंगई न करता। पर अपने देश के नेताओं और कानून व्यवस्था को क्या कहें, यह तो अपराधी के समक्ष नतमस्तक हो जाती है।

अगर ऐसा न होता तो राज यह चेतावनी नहीं देता कि हिम्मत है तो सरकार उसे गिरफ्तार कर दिखाए। खैर, अगर गिरफ्तारी हो भी जाती है तो भी जेल में सरकारी दामाद बनकर रहेगा ही। और कुछ दिन में जमानत हो जाएगी। फिर निशाने पर होंगे उत्तर भारतीय।

क्या राज को मराठों की रक्षा के लिए महाराष्ट्र सरकार ने लाइसेंस दे रखा है? क्या महाराष्ट्र पुलिस मराठा लोगों की जान-माल की सुरक्षा नहीं कर सकती? क्या मराठा लोग उत्तर भारतीयों की तरफ से खतरे में हैं, जो राज की पार्टी का कोपभाजन बनते हैं?

राज कभी नौकरियों के नाम पर उत्तर भारतीयों को निशाना बनाते हैं, कभी विकास के नाम पर मराठा लोगों को आगे लाने के लिए उत्तर भारतीयों पर हमले करते हैं, कभी टैक्सी वालों को उत्तर भारतीय कहकर तोड़फोड़ करते हैं, तो कभी बच्चन परिवार का नाम लेकर कोसते हैं कि वह मराठा की बात क्यों नहीं करते, इलाहाबाद की बात क्यों करते हैं।

राज ने जो अभियान उत्तर भारतीयों के खिलाफ छेड़ा है। अगर इसी तरह का अभियान अन्य लोग भी छेड़ दें तो बाहर रहने वाले मराठियों का क्या होगा?

Saturday, October 18, 2008

ये कैसी सजा?

जरा सी भूल की उसे ऐसी सजा मिली, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

अगर कोई टीचर बच्चों को होम वर्क देता है और बच्चे उसे नहीं कर पाते हैं, तो जाहिर है कि उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाएगा। उसके साथ भी ऐसा ही हुआ।

उसने आठवीं की एक छात्रा को होम वर्क दिया था, मगर वह नहीं कर पाई। तो टीचर ने काले स्केच पेन से उस छात्रा के माथे पर लिख दिया कि मैं पढ़ नहीं सकती। साथ ही, उसका चेहरा भी काला कर दिया। इसके बाद स्कूल के क्लासों में घुमाकर उसकी बेइज्जती भी की।

परिजनों और ग्रामीणों के विरोध के बावजूद भले ही उक्त टीचर को सस्पेंड कर दिया गया हो, पर उक्त छात्रा को जो सदमा पहुंचा है क्या उसकी भरपाई हो सकेगी?

Tuesday, October 14, 2008

ये कैसी सजा

जरा सी भूल की उसे ऐसी सजा मिली, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

दरअसल, डिलीवरी पेन से जूझ रही एक महिला घर से हेल्थ कार्ड लाना भूल गई। इस कारण उसे अस्पताल में भर्ती करना तो दूर धक्के देकर बाहर निकाल दिया गया।

वह रात में दर्द से चीखती रही, मिन्नतें करती रही। फिर भी किसी का दिल नहीं पसीजा और न ही कोई उसकी मदद के लिए आया। आखिरकार दर्द से चीखती उस महिला को अस्पताल के गेट पर ही बच्ची को जन्म देना पड़ा।

हांलाकि अस्पताल के कर्मचारियों का कहना है कि महिला का पति नशे में था इसलिए उसे नहीं भर्ती किया गया। अगर उक्त महिला का पति नशे में भी था तो क्या उसे मरने के लिए छोड़ देना उचित है? इसमें उसका क्या कसूर था?

घटना किसी गांव या कस्बे की नहीं,बल्कि राष्ट्रीय राजधानी के पश्चिम विहार इलाके की है।

इस घटना ने जिन्हें हम भगवान का दूसरा रूप मानते हैं, यानी डाक्टरों की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया है।

Monday, October 13, 2008

क्योंकि वह गरीब था

अपने देश की बात ही निराली है। यहां की हर चीज निराली है। अगर ऐसा न होता तो एक ओर चांद पर यान भेजने की तैयारी की जा रही है। दूसरी ओर, मात्र सत्तर फीट गहरे गड्ढे तक पहुंचते-पहुंचते हमें चार दिन लग जाते हैं। उसका सिर्फ यहीं कसूर था, क्योंकि वह गरीब था। अगर वह भी किसी नेता या मंत्री का बेटा होता तो उसे चंद मिनटों में ही बचा लिया जाता।

आगरा से चालीस किलोमीटर दूर स्थित शमसाबाद के लहराकापुरा गांव में पांच दिन पहले डेढ़ सौ फुट गहरे बोरवेल में गिरा दो वर्षीय सोनू हरियाणा के कुरुक्षेत्र के प्रिंस की तरह भाग्यशाली नहीं था। मौत के साथ जंग में सोनू को हार माननी पड़ी। पांचवें दिन सेना के जवानों ने बोरवेल से उसका शव निकाला। उसकी मौत दो दिन पहले ही हो गई थी। उसकी सलामती के लिए की जा रही दुआ भी काम नहीं आई।

इस घटना ने भले ही सभी को झकझोर कर रख दिया हो। लेकिन, हर बार की तरह इस बार भी कोई इस हादसे से सबक नहीं लेगा। और न ही इस हादसे के जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा दी जाएगी। कुछ दिनों के बाद फिर कोई बच्चा बोरवेल में गिरेगा और सरकारी अमले को पहुंचते-पहुंचते पता नहीं कितने दिन लग जाएं।

वैज्ञानिक चांद पर यान भेजने के बजाए कोई ऐसी मशीन क्यों नहीं बनाते हैं, जो चंद मिनटों में साठ-सत्तर फुट का गड्ढा खोद दे।

Sunday, October 12, 2008

दिशाहीन युवा

हमारी युवा पीढ़ी दिशाहीन होती जा रही है। समाज के दुश्मनों ने उसे नशे का आदी बना दिया है। युवा नशे के दलदल में ऐसे फंस हैं कि वहां से उनका निकलना मुश्किल हो गया है। नशे में पैसा तो बर्बाद होता ही है। साथ ही, शरीर भी बेकार हो जा रहा है पर युवा इससे बेखबर हैं। यह चिंता का विषय है।

जिस उम्र में युवाओं को पढ़ाई कर अपना और देश का भविष्य सुधारना चाहिए, उस उम्र में उन्हें गुमराह किया जा रहा है। युवा भी पश्चिमी संस्कृति का अनुशरण कर रातोंरात अमीर बनने की ख्वाहिश पाले बैठे हैं। वे बिना कुछ किए ही शीघ्र अमीर बनना चाहते हैं, ऐसा न होने पर वह नशे का सहारा लेने लगते हैं। नशा उन्हें अंदर ही अंदर खोखला कर रहा है पर उन्हें इसका भान ही नहींहै।

जरा सी बात पर युवाओं को उग्र होते देर नहींलगती है। वह कुछ भी कर गुजरने की ठान लेते हैं। स्कूल और कालेज में गोलीबारी करने में भी उनके हाथ नहींकांपते हैं। महिलाओं और युवतियों पर तेजाब फेंकने से भी वे नहीं हिचकिचाते हैं।

समाज में धन की अधिकता और प्राइवेसी की बढ़ती प्रवृत्ति ने युवाओं को अकेला कर दिया है। ऐसा नहीं है कि इसके लिए सिर्फ वे ही कसूरवार हैं, बल्कि हम सब बराबर के दोषी हैं।

Saturday, October 11, 2008

भीख भी महफूज नहीं

बढ़ते अपराध और महंगाई के दौर में भिखारियों की भीख भी अब महफूज नहीं रह गई है।

एक रिक्शे वाला अपाहिज भिखारी को चाय में नशीला पदार्थ पिलाकर बूंद-बूंदकर जोड़ी हजारों की नकदी लूट ले गया। ऐसे में दूसरे लोग कितने महफूज होंगे।

Sunday, October 5, 2008

ये भी तो रुके

सरहदी इलाकों से आए दिन करोड़ों रुपये की हेरोइन पकड़ी जा रही है। फिर भी इसे हल्के में लिया जा रहा है।

सच तो यह है कि मादक पदार्थो की तस्करी से जुड़ा एक बड़ा माफिया देश में अपने पांव पसार रहा है। पुलिस केवल इस गोरखधंधे में संलिप्त छोटी मछलियों को ही पकड़ कर मामले की इतिश्री कर देती है, जबकि कुछ दिनों बाद सरगना फिर अपना सिर उठाना शुरू कर देते हैं।

जिस तरह अगर कोई व्यक्ति अपने शक्तिशाली शत्रु से नहीं जीत पाता है तो वह उसके बच्चों को बिगाड़ने की कोशिश करता है। ठीक इसी तरह पड़ोसी मुल्क की यह कोशिश है कि मादक पदार्थो की खेप को भारत में भेज कर युवाओं को इसका आदि बनाया जाए, ताकि नशे की लत में युवा उनके मंसूबों को पूरा कर सकें।

तस्करी के बढ़ते मामलों को अब गंभीरता से लिया जाना जरूरी है, क्योंकि इससे न केवल युवा पीढ़ी नशे की गर्त में जा रही है बल्कि यह मामला देश की आंतरिक सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। यह तभी संभव होगा जब बीएसएफ, सेना और पुलिस आपस में समन्वय रखते हुए काम करे।

Saturday, October 4, 2008

कर दिया शर्मसार

उस युवती का क्या कसूर था, जिसे उड़ीसा में भड़की हिंसा के दौरान ईसाई समझ लिया गया। इतना ही नहीं, कुछ संगठनों के लोगों ने पहले तो उसकी आबरू लूट ली गई और फिर उसे जिंदा जला दिया गया।

यह युवती पद्मपुर के महिला कालेज की छात्रा थी। और वह पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए अनाथालय में काम करती थी। इस घटना का खुलासा एक पादरी ने किया है। हो सकता है कि यह घटना किसी धर्म को बदनाम करने की साजिश हो। लेकिन इसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है।

क्या इस घटना से देशवासियों का सिर शर्म से नहीं झुक गया है। इस घटना ने तो भारतीय संस्कृति को शर्मसार कर दिया है। कहां हैं वे लोग जो यह कहते थे कि जहां नारियों को सम्मान मिलता है, वहां देवता का निवास होता है। क्या कोई भी धर्म यह सिखाता है कि मां, बहन और बेटियों को बेईज्जत करो।

इस तरह की घटना को अंजाम देने वाले लोगों और आतंकियों में क्या फर्क है। क्या सरकार को ऐसे संगठनों पर तत्काल रोक नहीं लगा देनी चाहिए, जो निजी स्वार्थ की खातिर धर्म की आड़ में लोगों को भड़काकर इस तरह के अपराध करा रहे हैं।

क्या ऐसे लोगों को जिंदा छोड़ देना चाहिए? चाहे ये लोग किसी भी धर्म के हों, पर ये मानवता के सबसे बड़े दुश्मन हैं। सवाल यह नहीं है कि हम हिंदू हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं या ईसाई। सबसे पहले हम लोग एक इंसान हैं। इसलिए जो गलत है, उसका तो विरोध होना ही चाहिए।

ऐसा नहीं कि अगर हम जिस धर्म के हैं तो उस धर्म के लोगों की गलतियों पर पर्दा डालना चाहिए। गुनाह तो आखिर गुनाह ही होता है, चाहे किसी ने उसे किया हो। यह जरूरी है कि उसे गुनाह की कठोर सजा मिले।

Friday, October 3, 2008

धुएं में उड़ रहे आदेश

पुरानी फिल्म के एक गीत की दो लाइनें हैं.. 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।' गाना नौजवानों को खूब भाया और उन्होंने अपनी फिक्र को भी जमकर धुएं में उड़ाया।

मगर अब सरकार ने इस धुआंधारी को साफ करने का मन बना लिया है। सरकार ने आम आदमी के लिए सार्वजनिक स्थलों में धूम्रपान प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन तंबाकू उद्योग व उसके विज्ञापनों की ओर से आंख-कान बंद कर रखे हैं। ऐसे में कैसे नहीं उड़ेगा धुआं।

नशे की लत है ही ऐसी। एक बार जिस शख्स को लग जाए तो जल्दी छूटने का नाम ही नहीं लेती है। और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें आदेश की परवाह ही नहीं है। इसी कारण सार्वजनिक स्थलों पर भी आदेश धुएं में उड़ रहे हैं। सिर्फ प्रतिबंध लगाने भर से क्या सार्वजनिक स्थलों पर लोग धुआं नहीं उड़ाएंगे? सरकार को इस बाबत सख्ती अपनानी होगी।

यह सोचने की जहमत शायद ही कोई उठाता हो कि सिगरेट-बीड़ी का धुआं उनकी ही नहीं, आस-पास मौजूद लोगों की सेहत पर भी गंभीर दुष्प्रभाव डाल रहा है। जरूरत है धुआं उड़ाने के बजाए दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देकर नशा छोड़ने की।

Wednesday, October 1, 2008

दोहरी नीति क्यों ?

सरकार एक तरफ तो तंबाकू और तंबाकू उत्पादों को जनता की पहुंच से दूर करने की कोशिश में नजर आती है, लेकिन दूसरी तरफ इन उत्पादों के छद्म विज्ञापनों की तरफ से आंखें मूंदे है। आखिर क्यों?

कानून के मुताबिक तंबाकू कंपनियों को उनके उत्पादों के विज्ञापन की अनुमति नहीं है। ऐसे में कई बड़ी कंपनियांे ने छद्म तरीके से अपने उत्पादों के प्रचार का तरीका अपना लिया है। गुटखा, तंबाकू, बीड़ी के विज्ञापन तो खुलेआम गली चौराहों पर नजर आ जाते हैं। फिर भी सरकार कुछ नहीं कर पाती है। ऐसा क्यों हो रहा है?

दरअसल, तंबाकू उद्योग से सरकार को भारी मात्रा में राजस्व मिलता है। इस उद्योग से उत्पाद शुल्क आदि भी सबसे ज्यादा वसूल किया जाता है। ऐसे में, इस पर नकेल कसना उसके लिए आसान नहीं होता है। जब तक सरकार दोहरी नीति अपनाती रहेगी, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा।

दूसरी ओर अधिकतर लोगों में भी दृढ़निश्चय की कमी है, इसीलिए वह नशा नहीं छोड़ पा रहे हैं। वह एक ओर तो वे कहते हैं कि चलो आज नशा कर लूं, कल से नहीं करूंगा। लेकिन वे ऐसा कर नहीं पा रहे हैं। कुछ लोग एक नशे को छोड़ने के चक्कर में दूसरे नशे का आदी हो जा रहे हैं। जब तक लोग नशा छोड़ने का संकल्प नहीं लेंगे और उस पर अमल नहीं करेंगे, तब तक वह नशा नहीं छोड़ पाएंगे।