Monday, March 22, 2010

ये कैसे नेता

नेताओं ने शायद यह ठान ही लिया है कि हम नहीं सुधरेंगे। तभी तो वो किसी न किसी बहाने आए दिन चर्चा में बने रहना चाहते हैं। भले ही ये जम्हूरियत में कहते हैं कि जनता ही जनार्दन होती है। आप और हम भगवान होते हैं, लेकिन ये कहने की बात है। असल में ऐसा होता नहीं है। जिस दिन बटन दबाना होता है, उस दिन हम बादशाह होते हैं, लेकिन बटन दबाने के फौरन बाद ये बादशाहत खत्म हो जाती है और हमारे बादशाह बन जाते हैं हमारे प्रतिनिधि, हमारे नेता। लेकिन यहां तो नजारा कुछ और ही है। नेताओं का वोटरों को पटाने के लिए रिश्वत देना कोई नई बात नहीं है, लेकिन बंगलूरु महानगर पालिका चुनावों के दौरान एक नेता ने तो हद ही कर दी। यहां मतदान वाले दिन ही नोट बांट रहे इस नेता ने एक महिला वोटर के ब्लाउज में ही पैसे डाल दिए। ऐसे नेताओं के साथ क्या सलूक होना चाहिए? कब सुधरेंगे ये नेता?
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Sunday, March 14, 2010

तो क्या करें महिलाएं

एक ओर संसद में महिलाओं का बराबरी का हक दिलाने के लिए खींचतान जारी है, दूसरी ओर धर्मगुरु अपना अलग ही राग अलापने में लगे है। राजनीति में आने के लिए मर्द बनने वाले बयान के बाद एक और मौलाना ने महिलाओं के राजनीति में आने पर ऐतराज जताया है।

शिया धर्मगुरु का कहना है कि खुदा ने महिलाओं को अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करने के लिए बनाया है वे यही करे इसी में सबका भला है। यदि महिलाएं घर छोड़कर राजनीति में आ जाएंगी तो परिवार और बच्चों को कौन संभालेगा। राजनीति महिलाओं का काम नहीं है। महिलाएं अगर अपना फर्ज छोड़ देगी तो अच्छे नेता कैसे आएंगे।

कोई कहता है कि महिलाएं अकेली मंदिर में न जाएं तो कोई कहता है कि वह राजनीति में आने के लिए मर्द बनें तो कोई कहता है कि वह नेता न बनें, नेता पैदा करें..अब आप ही बताएं कि क्या करें महिलाएं?

Saturday, March 13, 2010

तो अकेली न जाएं महिलाएं

आजकल साधु-संतों को न जाने क्या हो गया है जो वह हमेशा चर्चा में बने रहना ही चाहते हैं। वे खुद का तो आचरण व व्यवहार सुधारने से रहे, पर दूसरों से इसे सुधारने की नसीहत जरूर दे देते हैं।

एक ओर तो संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात हो रही है। महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की भी बात हो रही है, वहीं-साधु-संत उन्हें कुछ और ही नसीहत दे रहे हैं।

महिलाओं को ज्यादा स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। महिलाओं को मंदिरों में भी अकेले जाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। यह कहना है रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास का। इनका कहना है कि महिलाएं जब भी मंदिर में जाएं अपने परिवार वालों को साथ लेकर जाएं। पर महिलाओं को मठ, मंदिर में जाने से रोकना क्या उनका अपमान करना नहीं है।

संत समाज की सोच ऐसी है कि वह खुद को पुरुष समझने लगे हैं, जबकि उनके पास आने वाली महिलाएं उन्हें विग्रह (ईश्वर) मानती हैं। हां, इतना जरूर है कि मठ-मंदिर में कोई अकेली महिला अगर रुके तो पहले उसके परिजनों के बारे में जानकारी जरूर कर ली जाए। उच्छृंखल महिलाओं को निश्चित रूप से मठ और मंदिर में ठहरने से रोका जाए।

साधु, अब साधु नहीं रह गए हैं। बड़े महलों में रहना और महंगे वाहन में चलना उनका शौक बन चुका है। जो महिलाएं या युवतियां संतों के संपर्क में आती हैं, वे धन की लालसा में आती हैं। वजह साफ है कि संत आज खुद धन की ओर भाग रहे हैं। साधुओं का धर्म है कि वे शासित रहें। पर ऐसा हो तब न।

Friday, March 12, 2010

ये कैसे गुरुजी


प्यार और दुलार से पत्थर दिल भी समझ जाते हैं, पर इन गुरुजी को कौन समझाए। इन्होंने आव देखा न ताउ और हो गए शुरू। ये पता नहीं किस का तैश अपने शिष्य पर उतार रहे हैं।
कबीर जी ने कहा है
गुरु कुम्हार शिश कुम्भ है गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट ।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट ॥
पर इस तरह मुर्गा बनाकर लात-घूसों से इतना नहीं मारना चाहिए कि वह कराह ही उठे। यह बेचारा रोजाना स्कूल न जाने का कसूरवार था। समझाने-बुझाने के बजाए क्या इस बच्चे की इतनी निर्दयता से पिटाई करना उचित है। क्या इस पिटाई के बाद वह स्कूल जाने लगेगा।

Tuesday, March 9, 2010

कब होगा हमारा सशक्तिकरण



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर जहां अधिकतर महिलाओं ने अपने अधिकारों की मांग की। वहीं सड़क के किनारे बनी दीवार के पत्थरों को रंगने में मशगूल ये महिलाएं नारी सशक्तिकरण का अर्थ नहीं जानती, इनकी चिंता सिर्फ यह है कि काम नहीं मिला तो चूल्हा कैसे जलेगा।